शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

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*जहाँ सुरति तहँ जीव है, जहँ नांही तहँ नांहि ।*
*गुण निर्गुण जहँ राखिये, दादू घर वन मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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महर्षि कणाद के जीवन में कथा है। कणाद ब्राह्मण का टाइप है। नाम ही कणाद पड़ गया इसलिए, कि कभी इतना अनाज भी घर में न हुआ कि संग्रह कर सके। रोज खेत में कण-कण बीन लेता था; कणों को बीनने की वजह से नाम पड़ गया - कणाद। सम्राट को खबर लगी कि कणाद कण बीन-बीन कर खेतों से खा रहा है। 
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सम्राट ने आज्ञा दी कि भरो रथों को धन-धान्य से ! चलो कणाद के पास। बहुत धन-धान्य को लेकर सम्राट पहुंचा। कणाद के चरणों में सिर रखा और कहा कि 'मैं बहुत धन-धान्य ले आया हूं। दुख होता है कि मेरे राज्य में आप रहें और आप कण बीन-बीनकर खाएं ! आप जैसा महर्षि और कण बीने - खेतों में, तो मेरा अपमान होता है।'
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तो कणाद ने कहा, 'क्षमा करें ! खबर भेज देते; इतना कष्ट क्यों किया ? मैं तुम्हारा राज्य छोड़कर चला जाऊं।' सम्राट ने कहा, 'आप क्या करते हैं ! कैसी बात कहते हैं ? आप मेरी बात नहीं समझे !' कणाद तो उठकर खड़े हो गए। ज्यादा तो कुछ था नहीं; जो दो-चार किताबें थीं - बांधने लगे।
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सम्राट ने कहा, 'आप यह क्या करते हैं ?' कणाद ने कहा, 'तेरे राज्य की सीमा कहाँ है, वह बता। मैं सीमा छोड़ बाहर चला जाऊं। क्योंकि मेरे कारण तू दुखी हो, तो बड़ा बुरा है।' सम्राट ने कहा, 'यह मेरा मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह निवेदन करने आया कि बहुत धन-धान्य लाया हूं, वह स्वीकार कर लें।'
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कणाद ने कहा, 'उसे तू वापस ले जा, क्योंकि उस धन-धान्य की व्यवस्था, सुरक्षा और सुविधा कौन करेगा ? उसकी देख-रेख कौन करेगा ? हमें फुर्सत नहीं है; हम अपने काम में लगे हैं। थोड़ी-सी फुर्सत मिलती है; सुबह घूमने निकलते हैं; उसी समय खेत से कुछ दाने बीन लाते हैं, तो उससे काम चल जाता है। कोई झंझट नहीं है हमें। 
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तू यह सब वापस ले जा। इसकी फिक्र कौन करेगा ? और हम इसकी फिक्र करेंगे कि हम अपनी फिक्र करेंगे - जिस खोज में हम लगें हैं। तू जल्दी कर और वापस ले जा; और दोबारा इस तरफ मत आना। और अगर आना हो, तो खबर दे देना। हम छोड़कर चले जाएंगे। हम कण कहीं भी बीन लेंगे; सभी जगह मिल जाएंगे।'
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अब यह जो आदमी है, इसे कण बीनने में सुविधा मालूम पड़ती है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है; कोई 'मैनेजमेंट' में नाहक समय जाया नहीं करना पड़ता है। नहीं तो बहुत से मालिक घूम-फिर कर मैनेजर ही रह जाते हैं। लगते हैं कि मालिक हैं, होते कुल-जमा मैनेजर हैं।

एंड्रू कार्नेगी, अमेरिका का अरबपति मरा, तो उसने अपने सेक्रेटरी से पूछा, ऐसे ही मज़ाक में, कि 'अगर दोबारा जिन्दगी फिर से हम दोनों को मिले, तू तो मेरा फिर से सेक्रेटरी होना चाहेगा कि तू एंड्रू कार्नेगी होना चाहेगा और मुझको सेक्रेटरी बनाना चाहेगा ?' उस सेक्रेटरी ने कहा, -'आप नाराज तो न होंगे ?' एंड्रू कार्नेगी ने कहा, 'नाराज क्यों होऊंगा ! बिल्कुल स्वाभाविक है, तू कार्नेगी बनना चाहे।' 
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उसने कहा, 'माफ करें मैं यह नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूँ कि मैं फिर सेक्रेटरी ही होना चाहूंगा।' एंड्रू कार्नेगी ने कहा, 'पागल तू एंड्रू कार्नेगी नहीं बनना चाहता ?' 'बिलकुल भूल कर भी नहीं। आपको जब तक नहीं जानना था, तब तक तो कभी भगवान से प्रार्थना भी कर सकता था; पर अब नहीं कभी नहीं कर सकता।' उसने पूछा, 'कारण क्या है?' तो उसने कहा, 'मैं अपनी डायरी में कारण नोट किया हुआ है।'
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उसने अपनी डायरी में लिख छोड़ा था कि हे परमात्मा, भूल कर मुझे कभी एंड्रू कार्नेगी मत बनाना। क्योंकि एंड्रू कार्नेगी अपने दफ्तर में सुबह नौ बजे आता है। चपरासी दस बजे आते हैं। क्लर्क साढ़े दस बजे आते हैं। मैनेजर ग्यारह बजे आता है। डायरेक्टर्स एक बजे आते हैं। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते हैं। चार बजे मैनेजर चला जाता है। फिर क्लर्क चले जाते हैं। फिर चपरासी चले जाते हैं। एंड्रू कार्नेगी साढ़े सात बजे शाम को जाता है। मुझे कभी एंड्रू कार्नेगी मत बनाना।'
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अब यह एंड्रू कार्नेगी दस अरब रुपए छोड़कर मरा है। लेकिन मालिक नहीं था। मैनेजर भी नहीं था। चपरासी भी नहीं था। चपरासी भी दस बजे आता है; चपरासी भी साढ़े सात बजे चला जाता है। कार्नेगी चपरासी से पहले से मौजूद है; चपरासी के बाद दफ्तर छोड़ रहे हैं !
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आखिर यह आदमी 'मैनेज' कर रहा है - किसके लिए ? नहीं; लेकिन इसका भी अपना टाइप है। वह तीसरा 'टाइप' है। धन - वैश्य का 'टाइप' है। इसे प्रयोजन नहीं है - न ज्ञान से, न शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। उस ब्रह्म से कोई वास्ता नहीं है। उसे ब्रह्माण्ड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों से मतलब नहीं है। पास के रुपये काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता जाएगा। यह भी इसका 'टाइप' है। यह वैश्य का टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है।
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चौथा एक शूद्र का 'टाइप' है; श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं है जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए; ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी लोग नहीं रह सकते।
ओशो

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