शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

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*दादू जे जे चित बसै, सोई सोई आवै चीति ।* 
*बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीति ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने, इस सदी के बड़े से मनोवैज्ञानिक ने, जब आदमियों के 'टाइप' बांटे, तो उसने भी चार में बांटे। नाम अलग, लेकिन बांटे चार में ही। इसमें कुछ मज़बूरी है। चार ही प्रकार हैं मोटे। फिर तो एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही प्रकार हैं।
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कुछ लोग हैं, जिनकी ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ बहती है; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गवां देंगे, लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे। अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है किस - किस जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को जीभ में रखने से वह मर जाएगा, लेकिन फिर भी वह जानना चाहता है। हम कहेंगे, पागल है; बिल्कुल पागल है ! ऐसे जानने की जरूरत क्या है ?
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लेकिन हमारी समझ में न आयेगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जान के रहेगा। वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें कौन सा फायदा है ? इस आदमी को क्या मिल रहा है ? हम समझ न पाएंगे, सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ पाएगा, अन्यथा न समझ पाएंगे।
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आइंस्टीन को क्या मिल रहा है ? सुबह से सांझ तक लगा है प्रयोगशाला में ! क्या मिल रहा है ? कौन सा धन ? यह सुबह से सांझ तक, पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है ? नहीं 'किसलिए' का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने के लिए लगा हुआ है।
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कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म भिन्न हैं। चार तरह के गुण हैं ;चार तरह के 'आर्च टाइप' हैं। जुंग ने 'आर्च टाइप' शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल प्रकार हैं। एक - जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के लिए, अंतहीन यात्रा करती है। 
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अब जो लोग चाँद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा ? कुछ बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना है। चांद पर भी नहीं रुकेंगे - और, और भी आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं - गुण से।
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दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए 'पावर', शक्ति सब कुछ है; शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाये उसी की यात्रा में लगा रहता है। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। उसे इंकार नहीं किया जा सकता। 
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क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है। अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है; कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा।
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क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार करता है, तब बड़ी अड़चन में पड़ जाता है। क्योंकि वह, वह काम कर रहा है जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा है, जिसे वह कर सकता था। 
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और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी तरह कर पाएं जो करने को नियति, 'डेस्टिनी' द्वारा निर्धारित है; जो करने को प्रभु ने उत्प्रेरित किया है; अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती; आनंद नहीं मिल सकता। जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं; जो गीत हमसे पैदा होने का था, वह हो जाए।
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लेकिन अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ जायेगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण ने उतने आदरित, सम्मानित और सर्वश्रेष्ठ, ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पायी नहीं। वह दीन का दीन ही रहा। 
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वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज ही करता रहा। आदर उसे बहुत था, सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते थे। राज्य उसके चरणों में लौट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म के - दूर जंगल में बैठकर। पागल रहा होगा ! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर रखने आया था, तो कुछ मांग ही लेना था !

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