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*दादू सो धन लीजिये, जे तुम सेती होइ ।*
*माया बांधे कई मुए, पूरा पड़या न कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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बगीचे के दुमँजले कमरे में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । शरीर अधिकाधिक अस्वस्थ होता जा रहा है । आज फिर डाक्टर महेन्द्र सरकार और डाक्टर राजेन्द्र दत्त देखने के लिए आये हैं । कमरे में राखाल, नरेन्द्र, शशि, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ तथा अन्य बहुतसे भक्त बैठे हैं ।
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बगीचा पाकपाड़ा के बाबुओं का है । किराये से है, ६०-६५ रुपये देने पड़ते हैं । भक्तों में जो कम उम्र के हैं, वे बगीचे में ही रहते हैं । दिन-रात श्रीरामकृष्ण की सेवा वहीं किया करते हैं । गृही भक्त भी बीचबीच में आते हैं और उनकी सेवा किया करते हैं । वहीं रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करने की इच्छा उन्हें भी है, परन्तु अपने-अपने कार्य में लगे रहने के कारण सदा वहाँ रहकर वे उनकी सेवा नहीं कर सकते ।
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बगीचे का खर्च चलाने के लिए अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार वे आर्थिक सहायता देते हैं । अधिकांश खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं । उन्हीं के नाम से किराये पर बगीचे की लिखा-पढ़ी हुई है । एक रसोइया और दासी, ये दो नौकर भी सदा वहीं रहते हैं ।
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*श्रीरामकृष्ण तथा कामिनी-कांचन*
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर सरकार आदि से) - बड़ा खर्च हो रहा है ।
डाक्टर - (भक्तों की ओर इशारा करके) - ये सब लोग तैयार भी तो हैं । बगीचे का सम्पूर्ण खर्च देते हुए भी इन्हें कोई कष्ट नहीं है । (श्रीरामकृष्ण से) अब देखो, कांचन की आवश्यकता आ पड़ी ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - बोल ना ?
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श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को उत्तर देने की आज्ञा दे रहे हैं । नरेन्द्र चुप हैं । डाक्टर फिर बातचीत कर रहे हैं ।
डाक्टर - कांचन चाहिए । और फिर कामिनी भी चाहिए ।
राजेन्द्र डाक्टर - इनकी स्त्री इनके लिए खाना पका दिया करती हैं ।
डाक्टर सरकार - (श्रीरामकृष्ण से) – देखा ?
श्रीरामकृष्ण - ( जरा मुस्कराकर) - है लेकिन बड़ा झंझट ।
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डाक्टर सरकार - झंझट न रहती, तो सब लोग परमहंस हो गये होते ।
श्रीरामकृष्ण - स्त्री छू जाती है, तो तबीयत अस्वस्थ हो जाती है ! और जिस जगह छू जाती है, वहाँ बड़ी देर तक सींगी मछली के काँटे के चुभ जाने के समान पीड़ा होती रहती है ।
डाक्टर - यह विश्वास तो होता है, परन्तु अपनी ओर से देखता हूँ तो कामिनी और कांचन के बिना काम ही नहीं चलता ।
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श्रीरामकृष्ण - रुपया हाथ में लेता हूँ तो हाथ टेढ़ा हो जाता है - साँस रुक जाती है । रुपये से अगर कोई विद्या का संसार चला सके, ईश्वर और साधुओं की सेवा कर सके, तो उसमें दोष नहीं रह जाता ।
"स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है । जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप - स्त्री का रूप धारण किया है । इसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता । सब स्त्रियाँ यों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है । ईश्वर के दर्शन हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है । यह समझ में नहीं आता ।"
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होमियोपैथिक दवा का सेवन करके श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से जरा अच्छे रहते हैं । राजेन्द्र - अच्छे होकर आपको स्वयं होमियोपैथिक डाक्टरी करनी चाहिए, नहीं तो फिर इस मानव-जीवन का क्या उपयोग होगा ? (सब हँसते हैं ।)
नरेन्द्र - जो मोची का काम करता है, वह कहता है कि इस संसार में चमड़े से बढ़कर और कोई चीज नहीं है ! (सब हँसे)
कुछ देर बाद दोनों डाक्टर चले गये ।
(क्रमशः)
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