मंगलवार, 12 नवंबर 2024

*संन्यासी भक्त*

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*दादू फिरता चाक कुम्हार का, यों दीसे संसार ।*
*साधुजन निहचल भये, जिनके राम अधार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*संन्यासी भक्त*
*छप्पय-*
*भक्त भागवत धर्म रत, इते संन्यासी सब सिरे ॥*
*रामचन्द्रिका सुष्ठ, दमोदर तीरथ गाई ।*
*चितसुख टीका करी, सु भक्ति प्रधान बताई ॥*
*नृसिंहआरण्य चन्द्रोदय, हरि भक्ति बखानी ।*
*माधव मधुसूदन-सरस्वती, गीता गानी ॥*
*जगदानन्द प्रबोधानन्द, रामभद्र भव जल तिरे ।*
*भक्त भागवत धर्म रत, इते संन्यासी सब सिरे ॥३०४॥*
यह छप्पय मूल छप्पय २७० की संख्या में आ गया है, इसकी टीका वहाँ देखें । इससे सब भक्त संन्यासी होने से संन्यास दर्शन में पुनः दे दिया है ऐसा ही ज्ञात होता है । नहीं तो पुनरावृत्ति की क्या आवश्यकता थी ! ॥३०४॥
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*छप्पय-*
*सरल शिरोमणि सुधर्मी, इते संन्यासी भक्ति पक्ष ॥*
*माधव मोह विवेक, कियो भिन भिन कर न्यारो ।*
*मधुसूदन सरस्वती, मान मद तज्यो पसारो ॥*
*प्रबोधानन्द रत ब्रह्म, रामभद्र राम रच्यो है ।*
*जगदानन्द जगदीश भज, जन्म मरणादि बच्यो है ।*
*श्रीधर विष्णुपुरी विचित्र, जन राघव अन१ तज दूध भक्ष२ ।*
*सरल शिरोमणि सुधर्मी, इते संन्यासी भक्ति पक्ष ॥३०५॥*
इतने संन्यासी सरल स्वभाव, भक्ति पक्ष वाले संन्यासियों में शिरोमणि और श्रेष्ठ भागवतधर्म को धारण करने वाले हुए हैं । १. माधव सरस्वतीजी ने मोहविवेक ग्रन्थ रचा है । उसमें विभिन्न युक्तियों द्वारा प्राणियों को मोह से अलग करके भगवद्भक्ति में लगाने का प्रयास किया है ।
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२. मधुसूदन सरस्वतीजी ने अपने गुरु श्रीविश्वेश्वर सरस्वतीजी की कृपा से सन्मान और विद्यामद तथा राजा द्वारा दिया हुआ सर्वस्व त्याग दिया था । आप बड़े सिद्ध योगी थे ।
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वीरसिंह नामक राजा के संतान नहीं थी । उसे एक रात में स्वप्न में सुनाई दिया कि इन मधुसूदन यति की सेवा करो संतान हो जायगी । खोज करने से ज्ञात हुआ वे एक नदी तट पर पृथ्वी में समाधिस्थ हैं । खोजने पर समाधिस्थ संत मिले । राजा ने स्वप्न के रूप को मिला कर निश्चय किया कि यही मधुसूदन यति हैं ।
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राजा ने वहाँ एक मंदिर बनवा दिया । तीन वर्ष बाद आपकी समाधि टूटी तब राजा के दिये हुए संपूर्ण पसारे को त्याग कर आप तीर्थाटन को चल दिये । आपके विद्यागुरु माधव सरस्वती थे । आप मुगल सम्राट् शाहजहाँ के समय विद्यमान थे ।
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आपके १. सिद्धान्तविन्दु, २. संक्षेपशारीरिक की व्याख्या, ३. अद्वैतसिद्धि, ४. अद्वैतरत्नरक्षण, ५. वेदान्तकल्पलतिका, ६. गूढार्थदीपिका गीता की टीका, ७. प्रस्थानभेद, ८. महिम्नस्तोत्र की टीका, ९. भक्तिरसायन ग्रन्थ हैं । ३. प्रबोधानन्दजी ब्रह्मरत रहे हैं, इनकी कथा पद्य टीका ३७५ में आ गई है । ४. रामभद्रजी रामजी में ही अनुरक्त रहे हैं ।
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५. जगदानन्दजी जगदीश्वर का भजन करके जन्म मरणादि संसार दुःख से बचे हैं । ६. श्रीधरजी की कथा मूल छप्पय ३०३ और पद्म टीका ४२२ में आ गई है । ७ विष्णुपुरीजी भी विचित्र भक्त हो गये हैं । इनने अन्न छोड़ कर दूध का ही पान किया था । विष्णुपुरीजी की कथा मूल छप्पय २७१ और पद्य टीका ३७६ में आ गयी है ॥३०५॥
(क्रमशः)

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