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*दादू गुरु गरवा मिल्या, ताथैं सब गमि होइ ।*
*लोहा पारस परसतां, सहज समाना सोइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-*
*इन मन वच कर्म राघव कहै, प्रकट सु परमातम भजै ॥*
*नृसिंहभारती ज्ञान, ध्यान ध्वनि भलो विचारी ।*
*मुकन्दभारती भक्ति, करी बड परचा धारी ॥*
*है सुमेरुगिरि साच, शील में बारह वानी ।*
*परमानन्द गिरि गिरा, संपूर्ण पूरो ज्ञानी ॥*
*रामाश्रय जग ज्योत बन, मन जीत्यो माया लजे ।*
*इन मन वच कर्म राघव कहै, प्रकट सु परमातम भजे ॥३०६॥*
॥ संन्यास दर्शन वर्णन सम्पन्न ॥
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राघवदासजी कहते हैं- नीचे लिये हुए संन्यासियों ने मन वचन और कर्म से प्रकट रूप में परमात्मा का ही भजन किया था ।
*१. नृसिंहभारतीजी* नादानुसंधान रूप ध्वनि सुनने में, ईश्वर ध्यान करने में तथा आत्मज्ञान में परमकुशल, अच्छे विचारवान् और प्रभु के परम भक्त थे ।
*२. मुकुन्दभारतीजी* प्रभु के प्यारे महान् भक्त और सिद्ध पुरुष थे । राजस्थान, जयपुर राज्य के महार नामक ग्राम के पर्वत में रहा करते थे । ये विक्रम की १६वीं तथा १७ वीं शताब्दी में विद्यमान थे । संतप्रवर श्रीदादूजी के शिष्य जैमल की माता जब जयमल बालक ही थे तब इनके पास इनका शिष्य बनाने के लिये ले गयी थी किन्तु इनने जयमलजी को शिष्य नहीं किया था और कहा था- "यह संतवर दादूजी का शिष्य होगा । दादूजी अभी साँभर नगर में आने वाले हैं, वे आ जायें तब तुम इनको उनके पास ले जाना । इनकी भविष्य वाणी सत्य हुई । आगे चलकर जयमल दादूजी के ही शिष्य हुए थे ।
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*३. सुमेरुगिरिजी* सत्य और शीलव्रत आदि में बारहवानी (पूरे तथा निर्दोष) निकले । आप प्रभु के पूर्ण भक्त थे ।
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*४. परमानन्द गिरिजी* संपूर्ण वाणी (वेदवचन) के पूरे ज्ञानी थे अर्थात् वेदादि शास्त्रों के जानने वाले थे । और प्रभु के प्रिय भक्त थे ।
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*५. रामाश्रमजी* जगत् में ज्योति रूप बने हुये से भासते थे । आपने अपनी साधना द्वारा मन को जीता था । आपके आगे माया भी लज्जित हुई थी अर्थात् आप पर माया का प्रभाव नहीं पड़ा था" ॥३०६॥
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*२. योगी दर्शन*
*मनहर- ॐकार आदि नाथ उदैनाथ उतपति,*
*उमापति शंभु सत तन मन जित है ।*
*संतनाथ विरंचि संतोषनाथ विष्णु जी,*
*जगन्नाथ गणपति गिरा को दाता नित है ॥*
*अचल अचंभनाथ मगन मत्स्येन्द्रनाथ,*
*गोरख अनन्त ज्ञान मूरति सु वित है ।*
*राघो रक्षपाल नऊं नाथ रटि रात दिन,*
*जिनको अजीत अविनाशी मध्य चित है ॥३०७॥*
यह मनहर प्रियव्रत की कथा के पहले मूल ५७ संख्या में आ गया था, यहाँ योगी दर्शन में फिर आया है ।
इसकी टीका पूर्व हो गयी है । वहाँ देखें ॥३०७॥
(क्रमशः)
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