शनिवार, 16 नवंबर 2024

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*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*जब मैं रहते की रह जानी ।*
*भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद विवाद न जानूं ।*
*मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोई बखानूं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कोउ कहे हरिदास हमारे जु यौं करि ठानत वाद-विवादू।*
#सुंदरदास कह रहे हैं: कबीर मिल गए, फिर क्या वाद-विवाद ? फिर पियो, फिर नाचो, फिर उत्सव मनाओ ! भर्तृहरि मिल गए, कि आदिनाथ, अब कहां उपद्रव में पड़े हो ? मंदिर अपनी ताकत लगा रहा है मस्जिद से लड़ने में। मस्जिद ताकत लगा रही है मंदिर से लड़ने में। नाचोगे कब ? प्रार्थना कब ? प्रार्थना कब होगी ? गाली-गलौज जारी है। मंदिरवाले मस्जिद को गाली दे रहे हैं, मस्जिदवाले मंदिर को गाली दे रहे हैं।
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प्रार्थना कब करोगे ? और ये गालियां जिन ओठों से निकल रही हैं, इन पर प्रार्थना आएगी कैसे ? ये ओंठ प्रार्थना के पात्र ही नहीं रह गए। सुंदरदास कहते हैं: और तौ संत सबै सिरि ऊपर। सुंदरदास कहते हैं कि मेरे सब संतों को नमस्कार ! मेरे सिर ऊपर! और तो संत सबै सिरि ऊपर। मेरे प्रणाम उनको। मेरे प्रणम्य हैं, मेरे वंदनीय हैं, लेकिन द्वार तो मुझे दादू से खुला है। सुंदर के उर है गुरु दादू।
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इसलिए इतना कहूंगा। विवाद नहीं है। फर्क समझना इस बात को। यह फर्क महत्वपूर्ण है। वे ये नहीं कह रहे हैं--कबीर गलत हैं। वे कहते हैं--मेरे प्रणम्य हैं, मेरे प्रमाण उनको। मगर रही जहां तक मेरी बात, मेरे दादू ने ही मुझे परमात्मा से मिलाया। यह मेरा दरवाजा है। जिनके लिए कबीर दरवाजे हैं, वे धन्यभागी हैं, वे उस द्वार से प्रवेश करें। मुझे मंदिर में मिला, मुझे मस्जिद में मिला कि गुरुद्वारे में। जिन्हें और कहीं मिल गया, मिला बस, यही बात सच है। यही बात काम की है। विवाद कुछ भी नहीं है। साधु चित्त का लक्षण है: विवाद का अभाव।
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और तो संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू॥
लेकिन इतना निवेदन कर देते हैं कि सबके लिए मेरा सिर झुका है, लेकिन जहां तक मेरे हृदय की बात है, वहां दादू विराजमान हैं। मगर दादू विराजमान हो गए, कि दादू में सब विराजमान हो गए। नानक, कबीर, कृष्ण, क्राइस्ट--सब विराजमान हो गए। क्योंकि गुरुओं के रंग-ढंग कितने ही अलग हों, उनकी गुरुता एक है, उनके भीतर की महिमा एक है। जिसने एक को जाना, उसने सबको जान लिया।
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तुम एक सदगुरु से संबंध जोड़ लो, तुम्हारे सब सदगुरुओं से संबंध जुड़ गए। फिर विवाद संभव नहीं है। विवाद की फुर्सत किसे है ! ऊर्जा जब नाचने को हो गई, समय जब वसंत का आ गया, फिर कौन विवाद करता है !
ओशो; हरि बोलो हरि बोल--प्रवचन--09

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