शनिवार, 16 नवंबर 2024

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*यहु मन बहु बकबाद सौं, बाय भूत ह्वै जाइ ।*
*दादू बहुत न बोलिये, सहजैं रहै समाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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निरंतर बात करने की आदत से ऐसा लगता है कि जब हम मौन हो रहे हैं तो हम उन लोगों के प्रति कठोर हो रहे हैं जिनसे हम बात करते थे, लेकिन शायद ही आपको स्मरण आया होगा कि आपने अपने को छोड़ कर और कभी किसी से बात नहीं की है। जब आप दूसरे से बात करते हैं तो दूसरा सिर्फ बहाना है। जो बात आपको करनी है वही आप करते हैं और अगर आपको अकेले में छोड़ दिया जाए जहां कोई भी न हो तो आप दीवालों से वही बात शुरू कर देंगे।
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दूसरे लोग खूंटियों की तरह हैं जिन पर हम अपनी बातें टांग देते हैं। वे केवल बहाने हैं, उनसे कोई प्रयोजन नहीं है। एक आदमी सुबह से अखबार पढ़ लेता है और फिर तलाश में घूमता है कि कोई खूंटी मिल जाए, उसने जो पढ़ लिया है वह उससे बोल कर बता सके। और दिन भर हर आदमी पर खूंटी का प्रयोग करता है और टांगता चला जाता है।
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दूसरे आदमियों से बात करके हम उनके प्रति कोई करुणा और प्रेम जाहिर करते हों, तो यह गलत है खयाल। लेकिन मौन की गहराई में उतर कर जरूर ऐसा हो सकता है कि हमारे पास करने को कोई बात न रह जाए, टांगने को कोई बात न रह जाए। तब दूसरा व्यक्ति महत्वपूर्ण हो सकता है और हम उसके हित के लिए कुछ कह सकते हैं।
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दूसरे के हित के लिए जगत में जो भी विचार पैदा हुए हैं वे सदा मौन से पैदा हुए हैं। विचारों और बातों से भरे हुए लोग दूसरे का सिर्फ साधन की तरह उपयोग करते हैं। दूसरे की मौजूदगी में वह जो कचरा उनके दिमाग में भरा हुआ है उसे उड़ेलने की कोशिश करते हैं। दूसरा केवल टोकरी का काम करता है, खूंटी का काम करता है। दूसरे का इससे ज्यादा उपयोग नहीं है। नहीं, आप बात करके दूसरे के प्रति करुणा और प्रेम प्रकट नहीं करते हैं, लेकिन मौन की स्थिति में कभी यह हो सकता है कि आपको दूसरा दिखाई पड़े। उसका हित दिखाई पड़े, उसके लिए क्या जरूरी है यह दिखाई पड़े।
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अभी तो आपको क्या कहना आवश्यक है, आप महत्वपूर्ण हैं कहते समय, दूसरा नहीं। कभी आपने बातचीत करते समय खयाल किया है, जब दूसरा बोल रहा होता है तब आप केवल बहाना करते हैं कि मैं सुन रहा हूं। भीतर आप तैयारी करते हैं कि यह कब बंद हो जाए और मैं बोलना शुरू करूं। आप सिर्फ तलाश में होते हैं कि कब वह मौका मिल जाए कि मैं इसे बंद करूं और बोलूं।

ओशो; प्रभु की पगडंडियां--(प्रवचन--3)

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