गुरुवार, 7 नवंबर 2024

निर्वाणषट्क

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*दादू देखु दयालु को, बाहरि भीतरि सोइ ।*
*सब दिसि देखौं पीव को, दूसर नाहीं कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र मधुर स्वर से निर्वाणषट्क कह रहे हैं –
ॐ मनोबुद्ध्ययहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ताश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः । पिता नैव में नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥६॥
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हीरानन्द – वाह !
श्रीरामकृष्ण ने हीरानन्द को इसका उत्तर देने के लिए कहा ।
हीरानन्द - एक कोने से घर को देखना जैसा है, वैसा ही घर के बीच में रहकर भी देखना है । 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है और 'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । एक द्वार से भी कमरे में जाया जाता है और अनेक द्वारों से भी जाया जाता है । सब लोग चुप हैं । हीरानन्द ने नरेन्द्र से गाने के लिए अनुरोध किया ।
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नरेन्द्र कौपीनपंचक गा रहे हैं –
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।
अशोकमन्तः करणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥१॥
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः ।
कन्यामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥२॥
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः ।
अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥३॥
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श्रीरामकृष्ण ने ज्योंही सुना - 'अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः' कि धीरे धीरे कहने लगे - 'अहा !' और इशारा करके बतलाने लगे कि यही योगियों का लक्षण है ।
नरेन्द्र कौपीनपंचक समाप्त करने लगे –
देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः ।
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥४॥
ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तः ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः ।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥५॥
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नरेन्द्र फिर गा रहे हैं - “परिपूर्णमानन्दम् ।
अंगविहीनं स्मर जगन्निधानम् ।
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचम् ।
वागतीतं प्राणस्य प्राणं परं वरेण्यम् ।"
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नरेन्द्र ने एक गाना और गाया ।
इस गाने में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार की हैं ~
"तुझसे हमने दिल है लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
हरएक के दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
जहाँ देखा नजर तू ही आया, जो कुछ है सो तू ही है ।"
"हरएक के दिल में' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण इशारा करके कह रहे हैं कि वे हरएक के हृदय में हैं, वे अन्तर्यामी हैं ।
‘जहाँ देखा नजर तू ही आया’ यह सुनकर हीरानन्द नरेन्द्र से कह रहे हैं, “सब तू ही है, अब 'तुम तुम' हो रहा है । मैं नहीं, तुम ।
नरेन्द्र - तुम मुझे एक दो, मैं तुम्हें एक लाख दूँगा । (अर्थात्, एक के मिलने पर आगे शून्य रखकर एक लाख कर दूगा ।) तुम ही मैं, मैं ही तुम, मेरे सिवा और कोई नहीं है ।
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यह कहकर नरेन्द्र अष्टावक्रसंहिता से कुछ श्लोकों की आवृत्ति करने लगे । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से, नरेन्द्र की ओर संकेत करके) - मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
(मास्टर से, हीरानन्द की ओर संकेत करके) "कितना शान्त है ! सँपेरे के पास विषधर साँप जैसे फन फैलाकर चुपचाप पड़ा हो !"
(क्रमशः)

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