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*दादू बिगसि बिगसि दर्शन करै,*
*पुलकि पुलकि रस पान ।*
*मगन गलित माता रहै,*
*अरस परस मिलि प्राण ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#कबीर के गुरु थे रामानंद। कबीर उनको नाचते देखते। तंबूरा बजता है, रामानंद नाचते हैं। कबीर उनके पास बैठते हैं। उनसे बहते आनंद के झरने का स्पर्श होता है। उनकी मस्ती, उनकी समाधिस्थ आनंद की दशा, सोते-जागते रामानंद को सब रूपों में देखते हैं। उस रूप में धीरे-धीरे अरूप की भनक पड़ने लगती है। रामानंद के पास होते-होते राम के पास होने लगते। क्योंकि रामानंद यानी राम को पा कर मिला आनंद।
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यह नाम बड़ा प्यारा है कबीर के गुरु का–रामानंद। जिसको मिल गया और जो उसके आनंद से भरा है। राम का पता नहीं है कबीर को, लेकिन रामानंद में घटे आनंद का पता है। वह घट रहा है। वह प्रतिपल बरस रहा है। वहां मेघ गरज ही रहे हैं। चहुं दिस दमके दामिनी। वहां तो बिजली चमक रही है। वह रामानंद के पास रोग लगता है। रामानंद संक्रामक बीमारी हो जाते हैं।
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जैसे बीमारियां पकड़ती हैं, वैसे स्वास्थ्य भी पकड़ती है। और जैसे बीमारियां पकड़ती हैं और बीमारियों के कीटाणु होते हैं, वैसे ही स्वास्थ्य के भी कीटाणु होते हैं और वैसे ही परमात्मा की धुन भी पकड़ती है। क्योंकि वह परम स्वास्थ्य है।
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रामानंद के पास एक नई पुलक उठने लगी। एक नई पुकार! कोई दूर से बुलाता है। पहचाना नहीं, जाना नहीं, लेकिन हृदय आंदोलित होता है। प्रीति लागी तुम नाम की। अभी तुम्हारा कुछ पता नहीं। अभी सिर्फ नाम सुना है। वह भी रामानंद से सुना है। लेकिन रामानंद में ऐसा घट रहा है, कि भरोसा आ रहा है कि वह नाम जरूर किसी का होगा। उसकी खोज करनी पड़ेगी।
ओशो; कहै कबीर दिवाना
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