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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ४९/५२*
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रांम ह्रिदै लिव२ लाइ रहै, ते जन रसिया होंइ ।
कहि जगजीवन आप निरंजन, मिल खेलै मन मोंहि ॥४९॥
(२. लिव लाइ=लय समाधि लगाकर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मन में राम नाम की लगन लगा लेते हैं, वे राम नाम रसिक होते हैं । उनसे परमात्मा आप स्वयं मिल कर क्रीडारत होते हैं, ऐसे जन प्रभु का भी मन मोह लेते हैं ।
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सोई रस पीवै मगन, जिस रस की मांहिं प्यास ।
हरिजन हरि रस हेत हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह ही इस राम रस का पान करेगा जिसे इसकी चाह होगी । जो प्रभु के बंदे है वे परमात्मा के आनंदरस से ही नेह करते हैं ।
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सरस बिरह बैराग हरि, सरस ग्यांन धरि ध्यांन ।
कहि जगजीवन सरस ए, रांम दरस रसपांन ॥५१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का ध्यान आनंदपूर्वक हो प्रभु विरह हो या संसार से वैराग्य या ज्ञान सबमें प्रभु का ही ध्यान हो ।
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सरस सु बांणी बंदगी, सरस कथा रस रूप ।
कहि जगजीवन सरस रस, पीवै प्रांण अनूप ॥५२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की सेवा सरस वाणी द्वारा कथा भी सरस रुप में हो । इस अद्भुत आनंदरस को अनुपम जीव ही पान करते हैं ।
(क्रमशः)
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