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*राम रमत है देखे न कोइ,*
*जो देखे सो पावन होइ ॥*
*बाहिर भीतर नेड़ा न दूर,*
*स्वामी सकल रह्या भरपूर ॥*
*दादू हरि देखे सुख होहि,*
*निशदिन निरखन दीजे मोहि ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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🥀झीनी झीनी बिनी चदरिया🥀
कबीर कहते हैं,
सोइ चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।
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लेकिन दास कबीर ने बड़े सम्हाल कर ओढ़ी, बड़ी सावचेतता से ओढ़ी, बड़े जतन से, होश से ओढ़ी, बड़े ध्यान से ओढ़ी--और ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया--जैसी दी थी परमात्मा ने, वैसी ही वापस कर दी। यह मोक्ष है। यह मुक्त की अवस्था है। तुम, जो मिलता है, उसे वैसा ही वापस कर देना बिना विकृत किए।
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बच्चा पैदा होता है, साफ चादर ले कर पैदा होता है। सब स्वच्छ, निर्दोष! फिर विकृति आनी शुरू होती, इकट्ठी होनी शुरू होती। बूढ़ा मरता है खंडहर की भांति, सब बरबाद! हाथ में कुछ भी उपलब्धि नहीं। जो पास था, वह भी गंवा कर। कबीर कहते हैं कि ज्ञानी भी करता है, लेकिन इतना उसको बचाए रखना है, जो मिला था। उस चादर को वैसा ही निर्दोष रखता है।
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कैसे रखोगे इस चादर को निर्दोष ? कबीर गृहस्थ हैं, पत्नी, बच्चा है, कमाते हैं, घर लाते हैं--फिर भी कहते हैं, दास कबीर जतन से ओढ़ी। कला क्या है इस चदरिया को बचा लेने की ? कला है : होश। कला है : विवेक। कला है : जाग्रत चेतना। करो--जो कर रहे हो, जो करना पड़ रहा है। जो नियति है, पूरी करो।
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भागने से कुछ प्रयोजन नहीं। लेकिन करते समय कर्ता मत बनो। साक्षी रहो, वहां कुंजी है। बाजार जाओ, दुकान करो, कर्ता मत बनो। मंदिर जाओ, प्रार्थना करो--कर्ता मत बनो। कर्ता परमात्मा को ही रहने दो, तुम काहे झंझट में…बीच में पड़ते हो। कर्ता एक--वही सम्हाले ! तुम साक्षी रहो। तुम जैसे अभिनेता हो--जैसे एक पार्ट तुम्हें मिला है, एक रोल ड्रामा के एक हिस्सा है, वह तुम्हें पूरा कर देना है।
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जैसे तुम राम बने, रामलीला में, तो जरूर तुम्हें रोना है। सीता चोरी जाएगी, वृक्ष से पूछना है, कहां है मेरी सीता, चीख--पुकार मचाना, सब करना है, लेकिन भीतर-भीतर न तुम्हारी सीता खोयी है, न कोई मामला है। अभिनय है। पर्दे के पीछे जाकर तुम फिर गपशप करोगे, चाय पियोगे। रावण से चर्चा करोगे--पर्दे के पीछे। पर्दे के बाहर धनुषबाण लेकर खड़े हो जाओगे।
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जीवन एक लीला है। अगर तुम जतन से चल सको, तो जीवन एक अभिनय है।
ओशो; सुन भई साधो--(प्रवचन-05)
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