मंगलवार, 5 नवंबर 2024

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*दादू अनुभव काटै रोग को, अनहद उपजै आइ ।*
*सेझे का जल निर्मला, पीवै रुचि ल्यौ लाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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चित्त तो महत्वाकांक्षी है ही। इस महत्वाकांक्षा को हम क्या करें ? चित्त तो आगे होना चाहता है, लेकिन शायद कोई भूल हो रही है। रवींद्रनाथ ने गीत लिखे। मरने के कोई आठ दिन पहले किसी मित्र ने आकर पूछा कि आपने ये गीत क्यों लिखे ? किससे आप आगे होना चाहते थे ? रवींद्रनाथ ने कहा कि गीत मैंने इसलिए लिखे कि गीत मेरे आनंद थे। किसी से आगे और पीछे का सवाल न था।
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गीत मेरी खुशी थी। मेरा हृदय उनको गा कर आनंदित हुआ था। आगे और पीछे होने का सवाल न था। किसी से न आगे होना था, न किसी से पीछे। ‘वानगाग’ एक डच पेंटर था। किसी ने उससे पूछा, ‘क्यों तुमने ये चित्र बनाए ? क्यों किया पेंट ? क्यों इतनी मेहनत की ? क्यों अपना जीवन लगाया ?’ वानगाग ने कहा कि और किसी कारण से नहीं। मेरा हृदय चित्रों को बनाकर परमानंद को उपलब्ध हुआ है।
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महत्वाकांक्षा दूसरे से प्रतिस्पर्धा है, दूसरे से आगे होना है। लेकिन सच्ची शिक्षा मनुष्य को वह रहस्य सिखाएगी जिससे वह खुद से आगे होने में समर्थ हो जाए, रोज-रोज खुद से आगे, दूसरे से नहीं। कल सांझ को सूर्य जहां मुझे छोड़े, आज सुबह सूर्य उगते मुझे वहां न पाए। मैं अपने भीतर और गहरा चला जाऊं। जिस काम को मैंने चाहा है, उसमें मेरे पैर और दस सीढ़ियां नीचे उतर जाएं, जिस पहाड़ को मैंने चढ़ना चाहा है, मैं और दस कदम आगे चला जाऊं।
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किसी दूसरे से नहीं, अपने से। कल मैं जहां था, सांझ मुझे आगे पाए, तो मैं जीवित हूं। मुझे अपने को पार कर जाना है। लेकिन अब तक जो शिक्षा दी गई है वह, दूसरे को पार कर जाने की शिक्षा है। इसलिए दुनिया में घृणा है, इसलिए दुनिया में प्रेम नहीं है। एक ऐसी शिक्षा को जन्म देना है, जो व्यक्ति को खुद अपना अतिक्रमण सिखो। आदमी अपने को पार करे, दूसरे को नहीं। दूसरे से क्या प्रयोजन है ?
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दूसरे से क्या संबंध है ? मेरी खुशी रोज गहरी होती चली जाए। मेरे जीवन की बगिया में रोज नए-नए फूल खिलते चले जाएं। मैं रोज उस नई ताजी जिंदगी के अनुभव करता चला जाऊं। मुझे कुछ सृजन होता चला जाए। दूसरे के इसका कोई संबंध नहीं। एक-एक व्यक्ति ऐसा जिए जैसे जमीन पर अकेला होता, तो जीता। तभी शायद हम मनुष्य को प्रेम पैदा करने में सफल बना सकेंगे।
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क्योंकि मनुष्य जब अपने को प्यार करता है तो रोज-रोज उसके पास बांटने को, लुटाने को, बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है, रोज बांटता है फिर भी पाता है। भीतर और इकट्ठा होता चला जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने को प्यार करता जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने जीवन के नए शिखरों को स्पर्श करता जा रहा है। वह नए आकाश को छू रहा है। नए क्षितिज को पार कर रहा है।
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उसके पास बहुत इकट्ठा हो जाता है। उसे वह क्या करे ? उसे वह बांटता है। जो अपने को पार करने मग लगता है उसका जीवन एक बांटना ही हो जाता है। उसकी खुशी फिर बांटना हो जाती है और महत्वाकांक्षी की खुशी होती है संग्रह करने में। सबसे छीन लेना है और अपने पास इकट्ठा कर लेना है। जो व्यक्ति अपने को पार होने में समर्थ होता है उसकी खुशी हो आती है बांट देना, लुटा देना और हमेशा उसे ऐसा लगता है कि जितना मैं दे सकता था उससे मैं कम दे पाया।
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रवींद्रनाथ के मरने के पहले किसी ने उनको कहा कि तुमने तो इतने गीत गाए, कहते हैं दुनिया में किसी न न गाए। छह हजार गीत, और एक-एक गीत ऐसा जो संगीत में बांधा जा सके। तुम तो महाकवि हो। काई ऐसा नहीं हुआ अब तक, जिसने छह हजार गीत गाए होंगे जो संगीत में बंध जाएं। रवींद्रनाथ की आंखों में आंसू आ गए।
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पूछनेवाले ने समझा कि वे प्रशंसा से प्रभावित हो गए हैं लेकिन रवींद्रनाथ ने कहा, ‘मैं रो रहा हूं दुःख से। तुम कहते हो मैंने गीत गाए और इधर मैं, मौत करीब आते देख आंख बंद करके परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि हे परमात्मा, अभी तो मैं केवल साज बिठा पाया था, अभी गीत गाया कहां ? अभी तो तैयारी चलती थी। अभी तो मैं सितार ठोक-पीट कर तैयार कर पाया था। अब गाता और यह विदा का क्षण आ गया।
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मुझे एक मौका और देना कि जो मैंने इकट्ठा किया था उसे बांट सकूं। अभी तो बहुत-कुछ इकट्ठा था। मेरा हृदय एक बादल की तरह था जिसमें पानी भरा था और धरती प्यासी थी और मेरे विदा का वक्त आ गया और बदल ऐसी चली जाएगी भरी-भरी, और अब लुटा नहीं सकेगी जो उसके पास था। मैं तो उसे फूल की तरह था जो अभी कली था और जिसमें सुगंध बंद थी। अभी मैं खुलता और सुगंध बांटता। लोग कहते हैं मैंने गीत गाए, मैं तो अभी साज बिठा पाया था और यह विदा का वक्त आ गया।’
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जो आदमी लुटा देगा, जो बांटेगा निरंतर, वह अनुभव करेगा कि उससे ज्यादा उसके भीतर बहुत घनीभूत हो आया था जो और लुट जाना चाहता था। ऐसे व्यक्ति का जीवन प्रेम का जीवन है। आत्मदान प्रेम है। लेकिन बांटेगा कौन ? जो छीनने को उत्सुक नहीं है वही। दूसरे को देगा कौन ? जो दूसरे से आगे निकल जाने को आतुर नहीं हैं वही, दूसरे के लिए जीएगा कौन ? जो दूसरे के जीवन को पीछे नहीं हटा देता। लेकिन हमारा सारा सम्मान तो उनके लिए आता है जो दूसरे को हटा देते हैं।
ओशो - 6-घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-05)
पांचवां-प्रवचन-(प्रेम नगर के पथ पर)

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