बुधवार, 11 दिसंबर 2024

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*बंध्या मुक्ता कर लिया,*
*उरझ्या सुरझ समान ।* 
*बैरी मिंता कर लिया, दादू उत्तम ज्ञान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#महावीर ने आत्मा को समय क्यों कहा ?
कृपाकर बतायें कि समय और आत्मा में क्या संबंध है ?
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अलबर्ट आइंस्टीन ने अस्तित्व के संघटन तत्व दो माने हैं। टाइम और स्पेस । समय और क्षेत्र । और फिर बाद में जैसे-जैसे आइंस्टीन की खोज गहरी होती गयी, उसे यह भी प्रतीत होने लगा कि इन दो तत्वों को कहना ठीक नहीं है। इसलिए फिर उसने दोनों के लिए एक ही शब्द चुन लिया : स्पेसियोटाइम । समय-क्षेत्र । क्षेत्र बाहर है, समय भीतर है।
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जीवन को अगर हम ठीक से समझें, तो हमें होने के लिए दो चीजें चाहिए। कोई जगह चाहिए होने के लिए। हम कुछ जगह घेरेंगे। तुम यहां बैठे हो, तो तुमने थोड़ी जगह घेरी। वही क्षेत्र, आकाश, स्पेस। लेकिन उतना काफी नहीं है। अगर उतना ही हो, तो तुम वस्तु हो जाओगे। फिर तुममें और टेबल और कुर्सी में कोई फर्क न रहेगा। टेबल और कुर्सी ने भी जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी। तुम जिस फर्श पर बैठे हो, उसने भी जगह घेरी है। जैसे तुमने जगह घेरी है।
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फिर तुममें और पत्थर में फर्क क्या है ? तुमने कुछ और भी भीतर घेरा है, वही समय है। पत्थर के लिए कोई समय नहीं है, कुर्सी के लिए कोई समय नहीं है। मनुष्य के लिए समय है। पशु-पक्षियों के लिए थोड़ा-सा बोध है समय का, बहुत ज्यादा बोध नहीं है। वृक्षों को और भी कम बोध है समय का । मनुष्य को बहुत बोध है समय का । तुम कहीं हो स्थान में, और कहीं हो समय में । इन दोनों रेखाओं का जहां कटने का बिंदु है, वही तुम्हारा अस्तित्व है।
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तो हम पदार्थ को कह सकते हैं स्पेस । क्योंकि वह सिर्फ क्षेत्र घेरता है। और चेतना को कह सकते हैं समय । चेतना और पदार्थ से मिलकर जगत बना । वस्तुएं हैं, उन्हें अपने होने का कोई पता नहीं,और जैसे ही हमें अपने होने का पता चलता है, वैसे ही समय का भी पता चलता है। हमारा होना अंतर्तम में समय की घटना है।
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तो एक तो हम इस तरह समझ सकते हैं आधुनिक भौतिकी के आधार पर की आइंस्टीन ने जिस भांति अंतर आकाश को समय कहा, वैसे ही महावीर ने भी आत्मा को समय कहा है। और जब मैं अलबर्ट आइंस्टीन का नाम लेता हूं महावीर के साथ, तो और भी कारण है। दोनों की चिंतनधारा एक-जैसी है।
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महावीर ने अध्यात्म में सापेक्षवाद, रिलेटीविटी को जन्म दिया और आइंस्टीन ने भौतिक विज्ञान में रिलेटीविटी को, सापेक्षवाद को जन्म दिया। दोनों का चिंतन-ढ़ंग, दोनों के सोचने की पद्धति दोनों का तर्क एक-जैसा है। अगर इस दुनिया में दो आदमियों का मेल खाता हो बहुत निकट से, तो महावीर और आइंस्टीन का खाता है। 
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महावीर का फिर से अध्ययन होना चाहिए, आइंस्टीन के आधार पर । तो महावीर में बड़े-बड़े नये तरंगों का, नये उद्भावों का जन्म होगा। जो हमें महावीर में नहीं दिखायी पड़ा था, वह आइंस्टीन के सहारे दिखायी पड़ सकता है। महावीर और आइंस्टीन में जैसे धर्म और विज्ञान मिलते हैं। जैसे महावीर धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं,और आइंस्टीन विज्ञान के जगत का महावीर है। ओशो : जिन-सूत्र(भाग-2) प्रवचन-8

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