बुधवार, 11 दिसंबर 2024

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*दादू पानी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात ।*
*बोलणहारा कौन है, कहो धौं कहाँ समात ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक जैन मुनि से, देशभूषण महाराज से मेरा मिलना हुआ। मिलना चाहते थे, तो मैंने कहा कि जरूर। वे नग्न हैं, दिगंबर हैं, सब छोड़ दिया। मुझसे बोले कि आप गीता पर बोले, आप उपनिषद पर बोले, आप धम्मपद पर बोले, लेकिन कुंदकुंद के "समयसार" पर क्यों नहीं बोले ? उमास्वाति के "तत्वार्थ-सूत्र" पर क्यों नहीं बोले ? अरे, अपने शास्त्रों पर क्यों नहीं बोलते हो ?
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मैंने उनसे पूछा: अपने और पराए ! आप तो सब छोड़ आए, वस्त्र भी छोड़ दिए, और अभी भी अपना-पराया मौजूद है ! अभी गीता पराई ! अभी धम्मपद पराया ! अभी कुंदकुंद का "समयसार' अपना ! अभी उमास्वाति का "तत्वार्थ-सूत्र' अपना ! वही मेरा, वही तेरा। 
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दुकानों में बंटा था, अब मंदिरों में बंटा। बही-खातों में बंटा था, अब शास्त्रों में बंटा। मगर शास्त्र सिवाय बही-खाते के और क्या हैं ? ऐसे आदमियों के हाथ में शास्त्र भी बही-खाते ही हैं। आदमी आश्चर्यचकित कर देता है अगर उसके संबंध में सोचो ! पत्ते छांटता रहता है, जड़ें नहीं काटता। और पत्ते छांटने से कहीं कोई क्रांति होने वाली है ! जड़ें काटनी होंगी। जड़ है मन।
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मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
कुछ मत छोड़ो, कहीं भागो मत। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: जहां हो वहीं जागो। भागने वाले जाग नहीं पाते। भागने वाले तो भयभीत हैं, कायर हैं। मगर हम कायरों को भी बड़े प्यारे नाम दे देते हैं, उनको कहते हैं--रणछोड़दास जी ! रण छोड़ भागे !
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मेरे गांव में एक मंदिर था--रणछोड़दास जी का मंदिर। मैंने उस गांव के पुजारी को जाकर कहा कि देख, इस मंदिर का नाम बदल ! उसने कहा, क्यों ? नाम कैसा प्यारा है: रणछोड़दास जी ! मैंने कहा, तूने कभी सोचा भी कि रणछोड़दास जी का मतलब क्या हुआ ? भगोड़े ! जिन्होंने पीठ दिखा दी जीवन को। 
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वह थोड़ा चौंका, उसने कहा कि तुझे भी उलटी-सीधी बातें सूझती हैं ! मुझे जिंदगी हो गई पूजा करते इस मंदिर में, मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि रणछोड़दास जी का यह मतलब होता है! बात तो तेरी ठीक, मगर अब तो दूर-दूर तक इस मंदिर की ख्याति है: रणछोड़दास जी का मंदिर। नाम बदला नहीं जा सकता है। मगर तूने एक अड़चन मेरे लिए पैदा कर दी। यह शब्द तो गलत है।
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कोई अगर युद्ध के क्षेत्र से पीठ दिखा दे, तो हम कायर कहते हैं उसे, और जीवन के संघर्ष से पीठ दिखा दे तो उसको महात्मा कहते हैं ! कैसा बेईमानी का गणित है ! मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके संन्यासी कैसे हैं, क्योंकि न घर छोड़ते, न द्वार छोड़ते, न दुकान छोड़ते, न बाजार छोड़ते ! मैं उनसे कहता हूं: मेरे संन्यासी ही संन्यासी हैं। क्योंकि छोड़ना है मन, और कुछ भी नहीं छोड़ना है। काटनी हैं जड़ें।
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मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
और क्या सिर पटकते रहते हो उपनिषदों पर, कुछ भी तुम्हारी समझ में नहीं आया। अब यह उपनिषद सीधा-सीधा कह रहा है कि मन है कारण, पत्नी कारण नहीं है। पत्नी को छोड़ कर भाग जाओगे, कुछ भी न होगा। फिर कहीं किसी और को पत्नी बना कर बैठ जाओगे। न होगी पत्नी, शिष्या होगी, सेविका होगी--नाम कुछ भी रख लेना। मगर वही मन और वही जाल। लेबल बदल जाएंगे, मगर भीतर जो भरा है सो भरा है।


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