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*दादू पहली पूजे ढूंढसी,*
*अब भी ढूंढस बाणि ।*
*आगे ढूंढस होइगा, दादू सत्य कर जाणि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मुहब्बत को जानना होगा, पहचानना होगा, जीना होगा, भोगना होगा।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को भोग से भागने को नहीं कहता, भोग में पकने को कहता हूं। भोग में ही योग का फल पकता है। यह विरोधाभास है। लेकिन जिंदगी के सारे राज विरोधाभासों में हैं। यहां जो भूलें नहीं करता, वह कभी सीखता नहीं। जो भूलों से बचेगा, सीखने से बच जाएगा। अगर सीखना हो तो भूलें करना, डरना नहीं। हां, एक ही भूल दुबारा मत करना।
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बंधाय विषयासक्तं...। "विषय में आसक्ति बंधन है।'
आसक्ति कैसे छूटेगी ? जबरदस्ती न छुड़ा सकोगे। छुड़ा-छुड़ा कर भागोगे, आसक्ति लौट-लौट आएगी। क्योंकि बाहर नहीं है आसक्ति, भीतर है--कैसे छूटेगी ? तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि यह हीरा है और तुम भाग खड़े हुए, तो तुम्हारे सपनों में आएगा हीरा। तुम्हें पुकारेगा। तुम्हें खींचेगा। तुम देख ही लो कि यह हीरा नहीं है। किसी और की मत मान लेना।
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अपने अनुभव के सिवाय और कोई जानना नहीं है। न कभी था, न कभी होगा। तुम इस हीरे को परख ही लो। इस हीरे को उठा ही लो। इसका हार बना ही लो। जब यह तुम्हीं को पत्थर हो जाएगा, तो यूं गिर जाएगा जैसे सूखे पत्ते वृक्षों से गिर जाते हैं। न वृक्ष को छोड़ना पड़ता, न उन्हें छूटना पड़ता। और जब इस संसार में जो व्यर्थ है वह सूखे पत्तों की तरह गिर जाता है, तो जो सार्थक है उसके नए अंकुर तुम्हारे भीतर उग आते हैं।
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बंधन हमारा अज्ञान है। मगर ज्ञान कैसे हो ? अनुभव से ही होगा। ठोकरें खानी होंगी, दर-दर की ठोकरें खानी होंगी; बहुत बार गिरना पड़ेगा, बहुत बार उठना पड़ेगा। उठ-उठ कर ही तो तुम सीखोगे चलना। अगर छोटे-से बच्चों को तुम्हारे महात्मा मिल जाएं और कहें कि बेटा, गिरना मत ! और बच्चा सोच ले, तय कर ले कि गिरूंगा नहीं, तो फिर घिसटता ही रहेगा जिंदगी भर, कभी खड़ा न हो पाएगा। चल ही न पाएगा। क्योंकि गिरने का डर चलने न देगा। जो चलेगा बच्चा, उसको गिरना ही पड़ेगा।
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तो बच्चे सौभाग्य से मां-बाप की सुनते ही नहीं ! मां-बाप तो बहुत कहते हैं कि बेटा, सम्हल कर, सम्हल कर, मगर बेटे के भीतर तो प्रकृति की ऊर्जा तूफान ले रही है, वह खड़ा होना चाहता है। एक दफा बच्चा खड़ा हो जाता है, दो कदम चल लेता है, कि उसको एकदम पागलपन चढ़ जाता है। चलने ही चलने की धुन रहती है उसको।
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जरा मौका पाया कि "चलूं'! गिर-गिर पड़ता है, घुटने टूट जाते हैं, लहूलुहान हो जाता है, मगर फिर-फिर उठ आता है। अगर सयाना हो, तो पड़ा ही रह जाए। अगर सयानों की मान ले, तो बचपन में ही बूढ़ा हो जाए। और बचपन में ही बूढ़ा हो जाना दुर्भाग्य है। वैसा ही दुर्भाग्य जैसे कुछ बूढ़े बुढ़ापे में भी बचकाने रह जाते हैं। न बच्चों को बूढ़ा होने की जरूरत है, न बूढ़ों को बचकाना रहने की जरूरत है।
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जिंदगी में सहज विकास होना चाहिए। एक संतुलन होना चाहिए। सीखो ! सीखने का एक ही उपाय है: भूल से मत डरना। आसक्ति को अनुभव करो। कांटे चुभेंगे, यह मैं कहे देता हूं। मगर मेरे कहने से कि कांटे चुभेंगे, तुम रुकना मत ! क्योंकि मेरी बात तुम्हारे किस काम की ? तुम्हें कांटे चुभने चाहिए। वह कांटे की चुभन तुम्हारे जीवन के पकाव में अनिवार्य है, अपरिहार्य है।
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बंधाय विषयासक्तं...। विषयों से वे ही बंधे रह जाते हैं जिन्होंने ठीक-ठीक उनका अनुभव नहीं किया। जिन्होंने अनुभव कर लिया, वे तो मुक्त हो जाते हैं। मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्। कौन होता है मुक्त ? जिसकी स्मृति से, जिसके अंतःस्मरण के लोक से विषयों की खींचत्तान समाप्त हो जाती है।
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जिसने धन को भोगा, वह धन से मुक्त हो जाता है। जिसने काम को भोगा, वह काम से मुक्त हो जाता है। मुक्त होने का एक ही उपाय है: जी लो, सारा कड़वा-मीठा अनुभव ले लो। और समय रहते ले लेना, नहीं तो पीछे बड़ा पछतावा होता है। जब समय था तब ज्ञान की बातों में उलझ गए। और उधार ज्ञान तो उधार ही रहेगा।
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अब जिसने भी इस सूत्र का हिंदी में अनुवाद किया, चिदानंद, उसने समझा ही नहीं। उसने बात को बिगाड़ दिया। उसने कह दिया, "जो विषयों से पराङ्मुख होगा, वह मोक्ष का कारण होगा।' पराङ्मुख जो होगा, वह तो बंधा ही रह जाएगा। बुरी तरह बंधा रह जाएगा। विकृत हो जाएगा। मोक्ष नहीं मिलेगा।
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हां, विषयों का जो अतिक्रमण करता है, विषयों को जान लेता, पहचान लेता, उसके भीतर ही अब इतनी बात साफ हो जाती है, स्वच्छ हो जाती है कि कुछ भी सार नहीं है। वह चिल्लाता भी नहीं फिरता कि विषय असार हैं। जो अभी चिल्ला रहा है कि विषय असार हैं, जो दूसरों को समझा रहा है कि सावधान धन से, पद से; सावधान स्त्रियों से, स्त्री नर्क का द्वार है, समझ लेना एक बात पक्की कि अभी यह स्वयं मुक्त नहीं हुआ है। नहीं तो इसे क्या स्त्री नर्क का द्वार दिखाई पड़ेगी !
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कहानी मैंने सुनी है कि मीरा जब वृंदावन पहुंची तो वृंदावन में जो कृष्ण का सबसे प्रमुख मंदिर था, उसका जो पुजारी था, उसने तीस वर्षों से किसी स्त्री को नहीं देखा था। वह बाहर नहीं निकलता था और स्त्रियों को मंदिर में आने की मनाही थी। द्वारपाल थे, जो स्त्रियों को रोक देते थे। कैसी अजीब दुनिया है ! कृष्ण का भक्त और कृष्ण के मंदिर में स्त्रियों को न घुसने दे ! और कृष्ण का जीवन किसी पलायनवादी संन्यासी का जीवन नहीं है, मेरे संन्यासी का जीवन है !
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सोलह हजार स्त्रियों के बीच यह नृत्य चलता रहा कृष्ण का ! अगर नर्क ही जाना है तो कृष्ण जितने गहरे नर्क में गए होंगे, तुम क्या जाओगे ! कैसे जाओगे ! इतनी सुविधा तुम न जुटा पाओगे। इतनी लंबी सीढ़ी न लगा पाओगे। सोलह हजार पायदान ! अरे, एकाध पायदान, दो पायदान बिठाल लिए, उतने में तो जिंदगी उखड़ जाती है ! एकाध-दो नर्क के द्वार खोज लिए, उतना ही तो काफी है ! उन्हीं दोनों के बीच में ऐसी घिसान, ऐसी पिटान हो जाती है ! सोलह हजार स्त्रियां !
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मगर यह सज्जन जो पुरोहित थे, इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी महात्मा की तरह ! प्रतिष्ठा का कुल कारण इतना था कि वे स्त्री को नहीं देखते थे। हम अजीब बातों को आदर देते हैं ! हम मूढ़ताओं को आदर देते हैं। हम रुग्णताओं को आदर देते हैं। हम विक्षिप्तताओं को आदर देते हैं।
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हमने कभी किसी सृजनात्मक मूल्य को आदर दिया ही नहीं। हमने यह नहीं कहा कि इस महात्मा ने एक सुंदर मूर्ति बनाई थी, कि एक सुंदर गीत रचा था, कि इसने सुंदर वीणा बजाई थी, कि बांसुरी पर आनंद का राग गाया था। नहीं, यह सब कुछ नहीं; इसने स्त्री नहीं देखी तीस साल तक। बहुत गजब का काम किया था !
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मीरा आई। मीरा तो इस तरह के व्यर्थ के आग्रहों को मानती नहीं थी। फक्कड़ थी। वह नाचती हुई वृंदावन के मंदिर में पहुंच गई। द्वारपालों को सचेत कर दिया गया था, क्योंकि मंदिर का प्रधान बहुत घबड़ाया हुआ था कि मीरा आई है, गांव में नाच रही है, उसके गीत की खबरें आ रही हैं, उसकी मस्ती की खबरें आ रही हैं, कृष्ण की भक्त है, जरूर मंदिर आएगी, तो द्वार पर पहरेदार बढ़ा दिए थे। नंगी तलवारें लिए खड़े थे, कि रोक देना उसे। भीतर प्रवेश करने मत देना। दीवानी है, पागल है, सुनेगी नहीं, जबरदस्ती करनी पड़े तो करना, मगर मंदिर में प्रवेश नहीं करने देना।
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यही सज्जन मालूम होता है स्वामी नारायण संप्रदाय में पैदा हो गए हैं, श्री प्रमुख स्वामी के नाम से। यह स्त्रियां नहीं देखते। हवाई जहाज पर चलते हैं तो इनके चारों तरफ एक बुर्का ओढ़ा दिया जाता है। क्योंकि एयर होस्टेस वगैरह, उनको देख कर कहीं इनको भ्रम हो जाए कि उर्वशी, मेनका--अप्सराएं आ गईं, क्या हो रहा है ! क्या इंद्र डर गया श्री प्रमुख स्वामी से ? छोटे-मोटे स्वामी नहीं, श्री प्रमुख स्वामी ! नाम भी क्या चुना है ! यह वही सज्जन मालूम होते हैं।
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मीरा नाचती गई। द्वार पर नाचने लगी, भीड़ लग गई। नाच ऐसा था, ऐसा रस भरा था कि मस्त हो गए द्वारपाल भी, भूल ही गए कि रोकना है। तलवारें तो हाथ में रहीं मगर स्मरण न रहा तलवारों का। और मीरा नाचती हुई भीतर प्रवेश कर गई। पुजारी पूजा कर रहा था, मीरा को देख कर उसके हाथ से थाल छूट गया पूजा का। झनझना कर थाल नीचे गिर पड़ा। चिल्लाया क्रोध से कि ऐ स्त्री, तू भीतर कैसे आई ? बाहर निकल !
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मीरा ने जो उत्तर दिया, बड़ा प्यारा है। मीरा ने कहा, मैंने तो सुना था कि एक ही पुरुष है--परमात्मा, कृष्ण--और हम सब तो उसकी ही सखियां हैं, मगर आज पता चला कि दो पुरुष हैं। एक तुम भी हो ! तो तुम सखी नहीं हो ! तुम क्यों ये शृंगार किए खड़े हो, निकलो बाहर ! इस मंदिर का पुरोहित होने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। यह पूजा की थाली अच्छा हुआ तुम्हारे हाथ से गिर गई। यह पूजा की थाली तुम्हारे हाथ में होनी नहीं चाहिए।
तुम्हें अभी स्त्री दिखाई पड़ती है ? तीस साल से स्त्री नहीं देखी तो तुम मुझे पहचान कैसे गए कि यह स्त्री है ? यूं न देखी हो, सपनों में तो बहुत देखी होगी ! जो दिन में बचते हैं, वे रात में देखते हैं। इधर से बचते हैं तो उधर से देखते हैं। कोई न कोई उपाय खोज लेते हैं। और मीरा ने कहा कि यह जो कृष्ण की मूर्ति है, इसके बगल में ही राधा की मूर्ति है--यह स्त्री नहीं है ?
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और अगर तुम यह कहो कि मूर्ति तो मूर्ति है, तो फिर तुम्हारे कृष्ण की मूर्ति भी बस मूर्ति है, क्यों मूर्खता कर रहे हो ? किसलिए यह पूजा का थाल और यह अर्चना और यह धूप-दीप और यह सब उपद्रव, यह सब आडंबर ? और अगर कृष्ण की मूर्ति मूर्ति नहीं है, तो फिर यह राधा ? राधा पुरुष है ? तो मेरे आने में क्या अड़चन हो गई ? मैं सम्हाल लूंगी अब इस मंदिर को, तुम रास्ते पर लगो ! मीरा ने ठीक कहा।
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जीवन को अगर कोई पलायन करेगा तो परिणाम बुरे होंगे। पराङ्मुख मत होना। जीओ जीवन को, क्योंकि जीने से ही मुक्ति का अपने आप द्वार खुलता है।
मन एव मनुष्यानां कारणं बंधमोक्षयोः।
बंधाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
चिदानंद, सूत्र तो प्यारा है ! सूत्र तो अदभुत है ! बहुत रस भरा है ! मगर व्याख्याओं से जरा सावधान रहना ! यह अनुवाद तक गलत है।
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मैं संस्कृत नहीं जानता, याद रहे ! लेकिन मैं उपनिषद जानता हूं। मेरा अपना अनुभव मैं जानता हूं। इसलिए मैं फिकर नहीं करता भाषा वगैरह की, भाषा से मुझे क्या लेना-देना, अगर मेरी अनुभूति के अनुकूल पड़ता है तो ठीक, अगर नहीं अनुकूल पड़ता तो गलत ! मेरे लिए और दूसरा कोई मापदंड नहीं है। प्रत्येक को अपनी अनुभूति के ही मापदंड पर, अपनी अनुभूति की कसौटी पर ही कसना चाहिए, तभी तुम जीवन में असार को सार से अलग कर पाओगे, नीर-क्षीर-विवेक कर पाओगे। यह सूत्र प्यारा है, मगर व्याख्याओं से सावधान !
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