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*दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।*
*उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कहि गया, सबके दाता राम ॥
यह खूब प्रसिद्ध हुआ–गलत कारणों से प्रसिद्ध हुआ। आलसियों ने प्रसिद्ध कर दिया। जिन्हें भी काम से बचना था, उन्हें इसमें आड़ मिल गई। आदमी बड़ा बेईमान है। मलूक का अर्थ कुछ और ही था। मलूक यह नहीं कह रहे हैं कि कुछ न करो। यह तो कह ही नहीं सकते हैं। मलूक यह कह रहे हैं कि परमात्मा को करने दो–तुम न करो।
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अजगर करै न चाकरी–सच है। किसने अजगर को नौकरी करते देखा ? लेकिन अजगर भी सतत काम में लगा रहता है। पंछी करै न काम–सच है। पंछी दफ्तर में क्लर्की नहीं करते, न मजिस्ट्रेट होते, न स्कूलों में मास्टरी करते, न दुकान चलाते हैं। लेकिन काम में तो चौबीस घंटे लगे रहते हैं। सुबह सूरज निकला नहीं कि पंछी काम पर निकले नहीं। सांझ सूरज ढलेगा, तब काम रुकेगा। अर्जित करेंगे दिन भर, तब रात विश्राम करेंगे।
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काम तो विराट चलता है। काम तो छोटी-छोटी चींटी भी करती है। काम से यहां कोई भी खाली नहीं है। फिर क्यों कहा होगा मलूक ने “अजगर करै न चाकरी, पंछी करै काम’’ ? मलूक का अर्थ है: इस काम में कहीं कर्ता का भाव नहीं है; “मैं कर रहा हूं,’’ ऐसी कोई धारणा नहीं है। जो परमात्मा कराये ! जिहि विधि राखै राम ! जो करा लेता है, वही कर रहे हैं। करने वाला वह है, हम सिर्फ उपकरण मात्र है।
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दास मलूका कहि गया, सबके दाता राम।
तो न तो हम कर्ता हैं, न हम भोक्ता है। न हम कर्ता हैं और न हम करने में सफल या असफल हो सकते हैं। वही करता है–वही हो सफल, वही हो असफल। ऐसी जिसकी जीवन-दृष्टि हो, उसके जीव में तनाव न रह जायेगा, चिंता न रह जायेगी।
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यह सूत्र तनाव को मिटाने का सबसे बड़ा सूत्र है। यह सूत्र काफी है–मनुष्य के जीवन से सारी चिंता छीन लेने के लिए। चिंता ही क्या है ? चिंता एक ही है कि कहीं मैं न हार जाऊं। चिंता एक ही हैं कि कहीं और कोई न जीत जाए। चिंता एक ही हैं कि मैं जी पाऊंगा पा नहीं ? चिंता एक ही है कि कोई भूल-चूक न हो जाए। चिंता एक ही है जिस मंजिल पर निकला हूं, वह मुझे मिलकर रहे।
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जिसने समझा। “सबके दाता राम’’, उसकी सारी चिंता गई। अहंकार गया, तो चिंता गई। कर्ता का भाव गया, तो बेचैनी गई। फिर चैन ही चैन है। फिर असफलता में भी सफलता है; निर्धनता में भी धन है। फिर मृत्यु में भी महाजीवन है। और अभी तो सफलता में भी असफलता ही हाथ लगती है।
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तुमने देखा नहीं। सफल आदमी किसी बुरी तरह असफल हो जाता है ! सफलता के शिखर पर पहुंच कर कैसा उदास हो जाता है ! सफलता तो मिल गई, और क्या मिला ? सफलता तो हाथ आ गई, सारा जीवन हाथ से निकल गया। और सफलता बड़ी थोथी है। सफलता सफलता लाती कहां है ? धन इकट्ठा कर लिया जीवन भर गंवाकर–और तब पता चलता है कि धन को खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे–क्या करोगे ? और मौत करीब आने लगी। धन मौत से बचा न सकेगा। तब याद आती है कि ध्यान ही कर लिया होता, ठीक था। क्योंकि ध्यान ही है एक सूत्र, जो अमृत से जोड़ देता है।
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बन गए राष्ट्रपति कि प्रधानमंत्री; पहुंच कर पद पर क्या होगा ? मौत सब छीन लेगी। तुमने जो दूसरों से छीना है, मौत तुमसे छीन लेगी। मौत सब छीना-झपटी समाप्त कर देती है। मौत बड़ी समाजवादी है, सबको समान कर देती है–गरीब और अमीर को, हारे को और जीते को, सबको एक साथ मिट्टी में मिला देती है, एक जैसा मिट्टी में मिला देती है। जीते के साथ कुछ भेद नहीं करती, हारे के साथ कुछ भेद नहीं करती। गोरे के साथ कुछ भेद नहीं करती; काले के साथ कुछ भेद नहीं करती। मौत परम समाजवादी है।
🙏🌹ओशो; कन थोड़े कांकर घने🌹🙏
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