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*आप आपण में खोजो रे भाई,*
*वस्तु अगोचर गुरु लखाई ॥टेक॥*
*ज्यों मही बिलोये माखण आवै,*
*त्यों मन मथियां तैं तत पावै ॥१॥*
*काष्ठ हुताशन रह्या समाई,*
*त्यूं मन माँही निरंजन राई ॥२॥*
*ज्यों अवनी में नीर समाना,*
*त्यों मन माँही साच सयाना ॥३॥*
*ज्यों दर्पण के नहिं लागै काई,*
*त्यों मूरति माँही निरख लखाई ॥४॥*
*सहजैं मन मथिया तत पाया,*
*दादू उन तो आप लखाया ॥५॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पहला प्रश्न:ओशो, जीवन क्या है ? ऐसे प्रश्न सरल लगते हैं, सभी के मन में उठते हैं। पर ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। ऐसे प्रश्न वस्तुतः प्रश्न ही नहीं हैं, इसलिए उनका उत्तर नहीं है। जीवन क्या है, इसका उत्तर तभी हो सकता है जब जीवन के अतिरिक्त कुछ और भी हो।
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जीवन ही है, उसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। हम उत्तर किसी और के संदर्भ में दे सकते थे। लेकिन कोई और है नहीं, जीवन ही जीवन है। तो न तो कुछ लक्ष्य हो सकता है जीवन का, न कोई कारण हो सकता है जीवन का कारण भी जीवन है और लक्ष्य भी जीवन है।
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ऐसा समझो, तुमसे कोई पूछे किस चीज पर ठहरे हो ? तुम कहो, छत पर और छत किस पर ठहरी है ? तो तुम कहो, दीवालों पर और दीवालें किस पर ठहरी हैं ? तो तुम कहो, पृथ्वी पर और पृथ्वी किस पर ठहरी है ? तो तुम कहो, गुरुत्वाकर्षण पर। और ऐसा कोई पूछता चले, गुरुत्वाकर्षण किस पर ठहरा है ? तो चांद-सूरज पर और चांद-सूरज? तारों पर और अंततः पूछे कि यह सब किस पर ठहरा है ? तो प्रश्न तो ठीक लगता है, भाषा में ठीक जंचता है, लेकिन सब किसी पर कैसे ठहर सकेगा ! सबमें तो वह भी आ गया है जिस पर ठहरा है। सबमें तो सब आ गया, बाहर कुछ बचा नहीं।
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इसको ज्ञानियों ने अति प्रश्न कहा है। सब किसी पर नहीं ठहर सकता। इसलिए परमात्मा को स्वयंभू कहा है। अपने पर ही ठहरा है अपने पर ही ठहरा है, इसका अर्थ होता है, किसी पर नहीं ठहरा है। 'जीवन क्या है ?' तुम पूछते । जीवन जीवन है। क्योंकि जीवन ही सब कुछ है। मेरे लिए जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है।
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लेकिन प्रश्न पूछा है, जिज्ञासा उठी है, तो थोड़ी खोजबीन करें। अगर उत्तर देना ही हो, अगर उत्तर के बिना बेचैनी मालूम पड़ती हो, तो फिर जीवन को दो हिस्सों में तोड़ना पड़ेगा। जिन्होंने उत्तर दिए, उन्होंने जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया। एक को कहा यह जीवन और एक को कहा वह जीवन यह जीवन माया, वह जीवन सत्य इस जीवन का अर्थ फिर खोजा जा सकता है।
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इस जीवन का अर्थ है उस जीवन को खोजना। इस जीवन का प्रयोजन है उस जीवन को पाना यह अवसर है। मगर तब जीवन को बांटना पड़ा बांटो तो उत्तर मिल जाएगा। मगर उत्तर थोड़ी दूर तक ही काम आएगा। फिर अगर कोई पूछे कि वह जीवन क्यों है--सत्य का, मोक्ष का, ब्रह्म का ? फिर बात वहीं अटक जाएगी। वह जीवन बस है।
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लेकिन यह विभाजन काम का है। कृत्रिम है, फिर भी काम का है। अपने भीतर भी तुम इन दो धाराओं को थोड़ा पृथक-पृथक करके देख सकते हो। थोड़ी दूर तक सहारा मिलेगा। एक तो वह है जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, और एक वह है जो देखता है। दृश्य और द्रष्टा ज्ञाता और ज्ञेय जानने वाला और जाना जाने वाला।
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उसमें ही जीवन को खोजना जो जानने वाला है। अधिक लोग उसमें खोजते हैं जो दृश्य है--धन में खोजते, पद में खोजते पद और धन दृश्य हैं। बाहर खोजते । बाहर जो भी है सब दृश्य है। उसमें खोजना जो द्रष्टा है, साक्षी है, तो तुम्हें परम जीवन की स्फुरणा मिलेगी।
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उसी स्फुरणा में उत्तर है--मैं उत्तर नहीं दे सकूंगा। कोई उत्तर कभी नहीं दिया है। उत्तर है नहीं, मजबूरी है। देना चाहा है बहुतों ने कभी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया है। और जिन्होंने उत्तर सच में देने की चेष्टा की है, उन्होंने सिर्फ इशारे बताए हैं कि तुम अपना उत्तर कैसे खोज लो उत्तर नहीं दिया, संकेत किए हैं--ऐसे चलो, तो उत्तर मिल जाएगा।
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और उत्तर बाहर नहीं है, उत्तर तुम्हारे भीतर है। उत्तर है इस रूपांतरण में कि मेरी आंखें बाहर न देखें, भीतर देखें। मेरी आंखें दृश्य को न देखें, द्रष्टा को देखें। मैं अपने अंतरतम में खड़ा हो जाऊं, जहां कोई रंग नहीं उठती। वहीं उत्तर है, क्योंकि वहीं जीवन अपनी पूरी विभा में प्रकट होता है। वहीं जीवन के सारे फूल खिलते हैं। वहीं जीवन का नाद है--ओंकार है ।
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जिंदगी, सच है कि, झूठ ही लगती अगर अफसाना न होती
जिंदगी, सच है कि, झूठ ही लगती अगर अफसाना न होती ! वह जो दृश्य का जगत है, एक कहानी है, जो तुमने रची और जो तुमने तुमसे ही कही। एक नाटक है, जिसमें निर्देशक भी तुम कथा-लेखक भी तुम अभिनेता भी तुम, मंच भी तुम, मंच पर टंगे पर्दे भी तुम और दर्शक भी तुम एक सपना है, जो तुम्हारी वासनाओं में उठा और धुएं की तरह जिसने तुम्हें घेर लिया।
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एक तो जिंदगी यह रही दुकान की, बाजार की, पत्नी-बेटे की, आकांक्षाओं की संसार जिसे कहा है और एक जिंदगी और भी है--वह जो भीतर बैठा देख रहा है। देखता है कि जवान था, अब बूढ़ा हुआ; देखता था कि तमन्नाएं थीं, अब तमन्नाएं न रहीं; देखता था कि बहुत दौड़ा और कहीं न पहुंचा; देखता था, देखता रहा है, सब आया, सब गया, जीवन की धारा बहती रही, बहती रही, लेकिन एक है कुछ भीतर जो नहीं बहता, जो ठहरा है, जो थिर है, जो अडिग है. वह साक्षी एक जीवन वह है।
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बाहर का जीवन भटकाएगा, भरमाएगा। उत्तर के आश्वासन देगा और उत्तर कभी आएगा नहीं । भीतर का जीवन ही उत्तर है। तुम पूछते हो: 'जीवन क्या है ?' तुम्हें जानना होगा। तुम्हें अपने भीतर चलना होगा। मैं कोई उत्तर दूं, वह मेरा उत्तर होगा। शांडिल्य कोई उत्तर दें, वह शांडिल्य का उत्तर होगा। वह उन्होंने जाना, तुम्हारे लिए जानकारी होगी। और जानकारी ज्ञान में बाधा बन जाती है। जानकारी से कभी जानना नहीं निकलता। उधारी से कहीं जीवन निकला है !
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बजाय तुम बाहर उत्तर खोजो, तुम अपने को भीतर समेटो । शास्त्र कहते हैं, जैसे कछुआ अपने को समेट लेता है भीतर, ऐसे तुम अपने को भीतर समेटो। तुम्हारी आंख भीतर खुले, और तुम्हारे कान भीतर सुनें, और तुम्हारे नासापुट भीतर सूंघें, और तुम्हारी जीभ भीतर स्वाद ले, और तुम्हारे हाथ भीतर टटोलें, और तुम्हारी पांचों इंद्रियां अंतर्मुखी हो जाएं।
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जब तुम्हारी पांचों इंद्रियां भीतर की तरफ चलती हैं, केंद्र की तरफ चलती हैं, तो एक दिन वह अहोभाग्य का क्षण निश्चित आता है जब तुम रोशन हो जाते हो। जब तुम्हारे भीतर रोशनी ही रोशनी होती है। और ऐसी रोशनी जो फिर कभी बुझती नहीं । ऐसी रोशनी जो बुझ ही नहीं सकती। क्योंकि वह रोशनी किसी तेल पर निर्भर नहीं बिन बाती बिन तेल। अकारण है। वही जीवन का सार है। वही जीवन का 'क्या' है।
उत्तरों में नहीं मिलेगा समाधान। समाधि में समाधान है।
अथातो भक्ति जिज्ञासा भाग: 1। ओशो
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