मंगलवार, 12 जून 2012

= श्री गुरुदेव का अँग १ =(१५६-७)



॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= श्री गुरुदेव का अँग १ =*
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उपर्युक्त मंत्रों के गुरुमुख श्रवण करने से ही अपूर्व फल मिलता है अत: महाप्रभु गुरु - विधि का उपदेश करते हैं :-
*दादू सब ही गुरु किए, पशु पंखी बनराइ ।* 
*तीन लोक गुण पंच सौं, सबही मांहिं खुद आइ ॥ १५६ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुजनों ! पशु, पक्षी आदि जगत् के जो चराचर प्राणी हैं, उनमें से २४ को दत्तात्रेयजी ने आत्म - कल्याण के लिये गुरु किये हैं, जैसे पशुओं में कामधेनु, पक्षियों में गरुड़, काक भुशुंडी, और वृक्षों में कल्पवृक्ष, नदियों में गंगा, पर्वतों में विन्ध्याचल आदि किन्तु उन्होंने पच्चीसवाँ गुरु देह को और शिष्य मन को बनाया, देह से विराग और विवेक मिला । इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् में परमेश्वर ने उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ की रचना की है ॥ १५६ ॥
इसलिए सभी प्राणियों ने गुरु - कृपा से ही आत्म - साधन किया है । इसीलिए गुरु अवश्य करना चाहिए । अथवा सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! सारग्रही दृष्टि से पशु - पक्षी आदि सभी को हमने गुरु किए हैं, क्योंकि तीन गुण एवं पांच तत्वों से यह तीन लोक रच करके सबमें परमात्मा आप विराजमान हैं । इसलिए तीनों लोक भगवत् स्वरूप ही हैं । अथवा दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि पशु पक्षी बनराय कहिए, सम्पूर्ण स्थावर जंगम्, जगतगुरु परमात्मा की ही रचना है, अर्थात् सब में आप परमेश्वर ही विराजमान हैं । किन्तुं सतोगुण - रजोगुण - तमोगुण - इन गुणों के प्रभाव से सब में आपस में विषमता है । किसी में सद्गुण विशेष है, किसी में कम, जिनसे सबको दत्तात्रेय की भाँति सुशिक्षा अवश्य प्राप्त होती है इससे वे गुरुतुल्य ही कहे जाते हैं । जिनमें सतोगुण प्रधान है, वे उत्तम हैं, जिनमें रजोगुण या तमोगुण प्रधान हैं, वे मध्यम एवं कनिष्ठ हैं । इसलिए सब में उत्तम - मध्यम भाव है । तातैं सम्पूर्ण में गुरु - शिष्य भाव देख पड़ता है । 
गरीबदास असवार लखि, करी खेचरी नाथ । 
अर्थ फेरि उत्तर दियो, रहे राम संग साथ ॥ 
दृष्टांत :- महाराज गरीबदास जी एक रोज मोमाज गांव बुलाने पर सेवकों के यहाँ घोड़े की सवारी से जा रही थे । रास्ते में नाथों का डेरा पड़ा । उन्होंने मन में सोचा कि गरीबदास जी आ रहे हैं, उनसे मखौल करेंगे, परन्तु उनमें जो पूरे संत थे, वे बोले :- गरीबदास जी से मखौल करना ठीक नहीं । यह नारद के अवतार हैं । किन्तु वे हुड़दंगे कब मानने वाले थे । डेरे के सामने से जब गरीबदास जी आने लगे, तब बोले :- गरीबदास जी, सत्यराम । उन्होने भी किया सत्यराम । "आप अपने गुरु पर ही चढ़े जा रहे हो क्या ?" गरीबदास जी बोले कैसे ? बोले - दादू जी महाराज ने कहा है "सभी गुरु किए'", हमने सबको ही गुरु बनाया है पशु पक्षियों को भी । गरीबदास जी कुछ नहीं बोले, चले गए । जब सेवक लोगों के यहाँ से वापिस लौटे, उसी रास्ते से तब विचार किया कि यदि ये लोग मुझे ही ऐसा कहते हैं तो पीछे पता नहीं क्या करेंगे ? यह विचारते हुए नरेना गद्दी पर आ गए । रात्रि को अपनी योग शक्ति से, उन नाथों के शरीर पर जो भेष - बाना था, वह सब सूते हुओं का उतरवा कर नरेना मंगवा लिया । जब वे लोग सोकर सुबह उठे तो कानों में तो मुद्रा नहीं, बदन पर सेली नहीं, गले में सीगीं नहीं । तब तो सोचा, यह क्या हुआ ? उसमें जो महापुरूष थे, वे बोले :- कल जो गरीबदासजी से मखौल किया था, उसी का यह दण्ड है । जाओ नरेना, उनके चरणों में पड़ो अपराध की क्षमा मांगो । तब वहां से दौड़कर नरेना आए । महाराज के चरणों में दण्डवत् करके क्षमा मांगी । महाराज बोले :- हम तो गुरु पर ही चढ़ते हैं, हम क्या क्षमा करें । नाथ बोले :- हम मूर्ख हैं । आप तो गरीब - निवाज कहिए, गरीबों को तारने वाले हो । दया करो, जिससे हमारा बाना हमारे शरीर पर आ जावे । गरीबदास जी बोले :- फिर कभी तो ऐसी मखौल साधुओं से नहीं करोगे ? तब कहा :- महाराज जी, अब कभी नहीं करेंगे । महाराज ने कहा :- इनका बाना इनके शरीर पर आ जावे । इतना कहते ही उनका बाना उनके शरीर पर आ गया । गरीबदास जी को नमस्कार कर वे अपने डेरे पर चले गए । 
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*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।* 
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥ १५७ ॥* 
*इति श्री गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग १ ॥ साखी १५७ ॥* 
टीका ~ जिस अगम अगाध नाम की दीक्षा सतगुरु ने प्रथम "गैब मांहि गुरुदेव मिल्या" कहिए, अहमदाबाद कांकरिया तालाब पर हरि ने वृद्ध रूप में दर्शन देकर उपदेश रूप में दी थी, उसका फल अन्त: करण में स्थिर हो करके उसे "नैनहुं" कहिए, दिव्य नेत्रों से साक्षात्कार किया है । महाराज सतगुरु कहते हैं, अरस - परस कहिए अन्तराय रहित होकर के एकरस नाम परमात्मा में हम समा रहे हैं, अविरल भक्ति से संग्न हो रहे हैं अथवा हे जिज्ञासुजनों ! जिस प्रभु के स्मरण करने का उपदेश किया है, उसे आत्मचिन्तन द्वारा ज्ञान रूपी नेत्रों से अनुभव करों और एक रस होकर के भगवद् भक्ति में ही संग्न रहो ॥ १५७ ॥ 
आप ही के घट में प्रकट परमेश्वर हैं, 
ताहि छोड़ भूले नर दूर - दूर जात हैं । 
"सुन्दर" कहत गुरुदेव दिये दिव्य नैन, 
दूर ही के दूरबीन निकट दिखात हैं ॥ 
"यह अंग गुरुदेव का, नित्य पढे जे कोइ । 
ज्ञान भक्ति वैराग्य पद, निश्चै पावै सोइ ॥ "
*इति श्री गुरुदेव का अंग सजीवनी टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग १ ॥ साखी १५७ ॥*

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