॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम क री पुकार ।*
*ताथैं साहिब ना मिल्या, दादू बीती बार ॥१०६॥*
हमारे हृदय में न तो भगवान् की विरहरूप पीड़ा उत्पन्न हुई और न हमने आतुरता से अपने प्यारे प्रीतम को कभी पुकारा ही, इसलिए हम अपने प्यारे प्रीतम का साक्षात्कार नहीं कर सके और यह मनुष्य जन्म वृथा ही जा रहा है ॥१०६॥
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*अंदर पीड़ न ऊभरै, बाहर करै पुकार ।*
*दादू सो क्यों करि लहै, साहिब का दीदार ॥१०७॥*
हे जिज्ञासुओं ! जिन जिज्ञासुजनों के हृदय में न तो विरह की पीड़ा उत्पन्न हई और न ही लोक दिखावे में ईश्वर को पुकारते हैं, तो ऐसे विरहीजन परमेश्वर का कैसे दर्शन कर सकते हैं ॥१०७॥
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*मन ही मांही झूरणां, रोवै मन ही मांहिं ।*
*मन ही मांहीं धाह दे, दादू बाहर नांहिं ॥१०८॥*
हे जिज्ञासुओं ! मन में ही व्याकुल होकर विलाप करिये । मन में ही परमेश्वर के लिये रुदन करिये और भीतर ही प्रबल पुकार करो । बाहर कहिए, दुनिया के दिखाने के लिए कुछ भी साधन नहीं करना । विरहीजनों के यही लक्षण हैं ॥१०८॥
(क्रमशः)
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