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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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५ आचार्य जैतरामजी महाराज
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उक्त मर्यादा के अनुसार ही सर्व प्रथम आचार्य जैतराम जी महाराज ने वि. सं. १७५० में उतराधों के उमरा नगर में जाकर १०० शिष्यों के साथ चातुर्मास किया था । जिसमें नियमानुसार - निमंत्रण, सामेला(अगवानी), डेरा, प्रतिदिन आज्ञा, जागरण, आरती प्रति एकादशी अमावस्या, पूर्णिमा को विशेष रुप से रसोई, आदि व्यवहार हुआ था ।
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आषाढ शुक्ला ११ से कार्तिक शुक्ला ११ चातुर्मास हुआ था । आचार्य जी को भेंट ११०१), हाथी की कीमत ५००), पोशाक का १२५) भंडारियों को १०१), साधुओं के कपडों के लिये ४००), अन्य टहलुओं को यथायोग्य लाग देकर आचार्य जी से दुशाला ओढा था । फिर वहां से रामत की तब प्रति मकानों में १०१) भेंट, २५) पूजा, १७) खर्च के, नियमानुसार सत्कार हुआ था ।
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उक्त प्रकार ही जैतराम जी महाराज ने रामत करते हुये समाज को उपदेश किया था । और गृहस्थ सेवकों ने भी अपनी श्रद्धानुसार सेवा करके उपदेश ग्रहण किया था । एक समय आचार्य जैतराम जी महाराज पंजाब देश में रामत कर रहे थे ।
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उन दिनों में वे पंजाब के एक पंचाला ग्राम में पधारे, तब वहां की जनता आचार्य जी को अगवानी में आई । उस समय बाजे बज रहे थे, कीर्तन होता जा रहा था । वहां पहुँचे हुये फकीर भी रहते थे । उन पर वहां की आसपास के प्रदेश की जनता बहुत श्रद्धा रखती थी । उस फकीर ने आचार्य जी को लाने जाने वाले समुदाय को जाते देखकर किसी से पूछा - आज यह बाजा बजाते और गाते हुये कहां जा रहे हैं ? उत्तर मिला नारायणा दादू धाम राजस्थान, दादूपंथ के आचार्य यहां आये हैं उनको लाने जा रहे हैं ।
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यह सुनकर उस फकीर के मन में संकल्प हुआ - “यदि आचार्य जी मेरे बिना मागे ही हरे रंग का दुशाला मुझे देंगे तो मैं भी इनको महात्मा मानकर इनके दर्शन करने जाऊंगा ।” फकीर इस प्रकार अपने मन में विचार कर रहा था । जैतराम जी महाराज बहुत उच्चकोटि के महात्मा थे । उन्होंने उस फकीर के मन की बात अपनी योगशक्ति से जान ली और उसकी कुटिया के पास आते ही अपनी सवारी को रोक कर, एक हरे रंग का दुशाला अपने एक शिष्य के हाथ में देकर कहा - इस फकीर को ओ़ढा दो ।
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उसने फकीर के पास आकर कहा - हमारे महाराज ने आपको उढाने के लिये दुशाला भेजा है, लो ओ़ढलो, ऐसा कह कर दुशाला फकीर को ओ़ढा दिया - फिर वह फकीर आचार्य जी के पास आया और प्रणाम करके बोला - आप समर्थ महात्मा हैं । मैंने मन में संकल्प किया था । आपने उसे जानकर मेरे को हरे रंग का दुशाला ओ़ढाया है । आपकी महिमा अपार है ।
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फिर उसने अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान छोड कर जैतरामजीकी महिमा करना आरंभ कर दिया । वह जनता को कहता था “जैतराम महाराज महान् सिद्ध पुरुष है, मेरे मन के संकल्प को भी जैतराम जी महाराज जान गये थे । अत: इनकी जितनी सेवा की जाय उतनी थोडी ही है ।”
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फिर तो वह फकीर महात्मा जिस और जैतराम जी जाते थे, उनसे पहले उन ग्रामों में जाकर जैतराम जी महाराज की महिमा करता था । जितने प्रदेश में उस फकीर महात्मा की प्रतिष्ठा थी उतने प्रदेश में वह फकीर जैतराम जी महाराज की प्रार्थना करके ले गया और बहुत सेवा कराई । लाखों मानव उस फकीर महाराज की प्रेरणा से जैतरामजी महाराज के दर्शन करने आये और श्रद्धानुसार भेंट चढाई ।
(क्रमशः)