॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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"दादू तन मन के गुण छाड़ि सब." इत्यादिक सूत्र के व्याख्यान स्वरूप, अब मन के अंग का प्रतिपादन करेंगे । प्रथम मंगलाचरण करते हैं ।
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
टीका - निरंजनदेव दिव्य मूर्ति सतगुरु और समस्त साधन - सम्पन्न साधुओं को तन, मन, वाणी द्वारा हमारी बारम्बार वंदना है, जिससे साधक संकल्प - विकल्प रूप दुःख से निवृत्त होकर "पार" निश्चल राम को "गतः" कहिए प्राप्त होते हैं ॥१॥
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*दादू यहु मन बरजि बावरे, घट में राखि घेरि ।*
*मन हस्ती माता बहै, अंकुश दे दे फेरि ॥२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अल्प - बुद्धि रूप इस हाथी रूप मन को, जो मदोन्मत्त हो रहा है अर्थात् बाह्य विषयों में आसक्ति वाले इस चंचल मन को अन्तर्मुख करके सतगुरु के उपदेश और विवेक वैराग्य आदि द्वारा इस शरीर में ही आत्मस्वरूप में लगाइये ॥२॥
मन को साधन एक है, निशदिन ब्रह्म विचार ।
सुन्दर ब्रह्म विचार से, ब्रह्म होत नहीं बार ॥
"कबीर" दुबारा सांकड़ा, राई दसवें भाई ।
मन तहाँ मैंगल ह्वै रह्या, क्यूं करि सकै समाइ ॥
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*हस्ती छूटा मन फिरे, क्यों ही बँध्या न जाइ ।*
*बहुत महावत पच गये, दादू कछु न वशाइ ॥३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे बन्धन से छुटकारा पाया हुआ हाथी मदोन्मत्त होकर विचरता है और उसके बन्धन का अब कोई उपाय सम्भव नहीं है, वैसे ही हस्ती रूपी यह मन, विवेक - वैराग्य के बन्धन से मुक्त होकर, संसारी विषयों में भ्रमता है । महावत रूप अनेक ऋषि, मुनि एवं साधक प्रयत्न कर - करके थक गये, किन्तु किसी ने भी मन की चंचलता का पार नहीं पाया है ॥३॥
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव दुष्करम् ।
अंक्षशयं महाबाहो! मनोदुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते ॥(गीता ६ / ३४)
एक सेर कुंजर हने, अति गति तामैं जोर ।
सेर गहे चालीस जिन, मन सा बली न ओर ॥
सिर जाके चालीस हैं, असी अर्ध सिर ताहि ।
पांव एक सौ साठ हैं, क्यों कर पकड्या जाहि ॥
छन्द -
घेरिये तो घेर्यो हु न, आवत है मेरो पूत,
जोई परमोधिये सो कान न धरतु है ।
नीति न अनीति देखे, शुभ न अशुभ पेखे,
पल ही में होती अनहोती हु करतु है ।
गुरु की न साधु की न लोक वेद हु की शंक,
काहु की न मानै, न तो काहु से डरतु है ।
"सुन्दर" कहत ताहि, धीजिये सु कौन भांति,
मन को स्वभाव कछु कह्यो न परतु है ॥
(क्रमशः)
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