॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*जहाँ थैं मन उठ चलै, फेरि तहाँ ही राखि ।*
*तहँ दादू लैलीन कर, साध कहैं गुरु साखि ॥४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन "जहाँ थै", कहिये आत्मस्वरूप चैतन्य से प्रतिबिम्बित होकर संकल्प द्वारा विषयों में प्रवृत्त होता है । इसको अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा आत्मस्वरूप चैतन्य में ही स्थिर करिये । यही सर्व साधुओं की आज्ञा है और सतगुरु का भी यही उपदेश है ॥४॥
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*थोरे थोरे हठ किये, रहेगा ल्यौ लाइ ।*
*जब लागा उनमनि सौं, तब मन कहीं न जाइ ॥५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शनैः शनैः इस मन को राम - नाम स्मरण द्वारा रोकिये, तब यह मन आत्मस्वरूप मन में ही लगाकर स्थिर रहेगा । जब यह मन बाह्य विषयों से उदासीन हुआ, तो फिर कहीं भी नहीं जाता है अर्थात् उन्मनी कहिये ब्रह्म दशा को प्राप्त होता है ॥५॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वंश नयेत् ॥
मनवा मेरे हाथ है, मैं नहीं मनवा हाथ ।
जित ही तित मनवा फिरै, तित ही तित मैं साथ ॥
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*आड़ा दे दे राम को, दादू राखै मन ।*
*साखी दे सुस्थिर करै, सोई साधू जन ॥६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तुम्हारा मन विषयाकार होवे, तब राम - नाम के स्मरण द्वारा रोको, क्योंकि जो पुरुष इस प्रकार साधन करता है और उत्तम पुरुषों के शब्द की शिक्षा देकर इस मन को स्थिर करता है, वही संत पुरुष है ॥६॥
मन रे जाइ जहाँ तोहि भावै,
अब न तोरे कोई अकुंस लावै ।
जहाँ जहाँ जाइ तहाँ तहाँ रामा,
हरि पद चीन्ह किया बिसरामा ॥
नाम का अक्षर चौगुणा कीजे,
पंच मिलाइ कै द्वैगुण लीजे ।
आठ को भाग दिये रघुनाथ,
बचे पुनि अंक तहाँ मन साथ ॥
(क्रमशः)
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