सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/१३-५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*दादू तन मन के गुण छाड़ि सब, जब होइ नियारा ।*
*तब अपने नैनहुं देखिये, प्रगट पीव प्यारा ॥१३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! तन के गुण(चोरी, जारी इत्यादि), मन के संकल्प - विकल्प(तृष्णा आदि), इनसे अलग होकर कहिए, छोड़कर फिर अपने ज्ञान - विचार रूपी नेत्रों में, हृदय प्रदेश में मुख - प्रीति का विषय वह प्यारा परमेश्वर प्रकट हो रहा है । उसके दर्शन करो ॥१३॥ 
चोरी जारी हिंसता, तनहि दोष हैं तीन । 
निंदा झूठ कठोरता, वाक् चाल वक्चीन ॥ 
तृष्णा चितवन दोष बुधि, ये "नरसिंघ" मन दोष । 
काइक वाचिक मानसी, दसौं दोस तज मोक्ष ॥ 
दृष्टांत - सन्त इकहार्ट जंगल में एक वृक्ष के नीचे शान्तभाव से बैठे थे । उनका कोई पुराना मित्र उधर से गुजरा । उसने देखा - इकहार्ट अकेले बैठे हैं । वह उनके पास जाकर बैठ गया और बोला - "शायद, आप अकेले बैठे - बैठे ऊब रहे हैं, यह सोचकर आपके पास आया हूँ ।" सन्त बोले - "भाई ! मैं अकेला कहाँ था ? मैं तो अपने साथ था, मेरा प्रभु मेरे साथ था । तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया । अब मेरा "मैं" अर्थात् "मेरा प्रभु" मुझसे छूट गया ।"(कितना गहरा रहस्यमय सन्त - वचन था !)
छन्द - 
जगमग पग तजि, सजि भजि राम नाम, 
काम क्रोध तन मन, घेरि घेरि मारिये ।
झूठ मूठ हठ त्याग, जाग भाग सुनि पुनि, 
गुन ग्यान आनि आनि, बारि बारि डारिये ।
गहि ताहि जाहि शेष, ईश ससि सुर नर, 
और बात हेरि तात, फेरि फेरि जारिये ।
"सुन्दर" दरद खोई, धोई धोई बेरि बेरि, 
सार संग अंग रंग, हेरि हेरि धारिये ॥ 
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*दादू झांती पाये पसु पिरी, अंदरि सो आहे ।*
*होणी पाणे बिच्च में, महर न लाहे ॥१४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "झांति' कहिए, झरोखा रूपी मनुष्य शरीर को प्राप्त करके इसमें प्यारे परमेश्वर को देखिये । मनुष्य देह के हृदय रूपी मन्दिर में स्वस्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन करो । वह तुम्हारे भीतर ही है और तुम्हारे आत्म - स्वरूप से ही वह विद्यमान है । इसमें विलम्ब नहीं करना ।
रेखता - 
तूझे किया पैदा उन, जान के जहान बीच, 
मालिक महरबान करने को बन्दगी ।
दुनियां से लाग के, अल्लह आज भूल गया, 
कुफर कमाया कछु करी नहीं बन्दगी ।
इशक इबादती में एक सा यकीन राख, 
राज के हजूर तेरे, कीजिए न रिन्दगी ।
खेमदास जानेगा अवाज सो न मानेगा, 
परेगी खबर तब होइगी शर्मिन्दगी ॥ 
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*दादू झांती पाये पसु पिरी, हाणे लाइ न बेर ।*
*साथ सभौई हल्लियो, पोइ पसंदो केर ॥१५॥* 
इति चितावणी का अंग सम्पूर्ण ॥अंग ९॥साखी १५॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह अमूल्य मनुष्य देह प्राप्त करके अब प्यारे परमेश्वर के दर्शन करने में देर नहीं करो । तुम्हारे साथी तो सब चल पड़े हैं और तुम पड़े - पड़े वृथा मनुष्य देह के श्वासों को गँवाते हो । हे नादान ! तुम विषयों में पड़े - पड़े क्या देख रहे हो ? यह अमूल्य नर - तन प्राप्त हुआ है, अब इसमें आत्म - स्वरूप परमेश्वर का चिंतन करो । इसी में इस नर - तन की सफलता है ।
हूँई हलहल साथ मैं, खेमा नहीं बिलग्ग । 
एकै भार पलाणियां, एक पलाणन लग्ग ॥ 
वंजी पियारे सज्जनां, सैना बैनन कथि । 
तैडा कागज बंचिया, मैडा कागज हथि ॥ 

रेखता - 
अजाये भी न जाइगी, कमाई किसी दोस्त की, 
नेकी रु बदी का खेत बोवेगा जैसा लुणेगा ।
देखिए निरताइ कछु जानिये जहान ख्वाब, 
एक रोज जमीं में, औजूद मिट्टी सनेगा ।
रहेगा हमेस, एक राजिक रहीम सच्चा, 
और सब फनाफनी, केते कौन गिनेगा ।
राखिये करार उस, पैदा के करैया सेती, 
"खेमदास" दीन में, दीदार रोजी बनेगा ॥ 
इति चितावणी का अंग टीका और दृष्टांत सहित सम्पूर्ण ॥अंग ९॥साखी १५॥ 
(क्रमशः)

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