शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/१-३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
अब निष्कर्म पतिव्रता के अनन्तर "साहिब जी का भावता, कोइ करै कलि मांहि.", इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप जिज्ञासुजनों को चितावने के निमित्त चितावणी के अंग का निरूपण करते हैं ।
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*मंगलाचरण*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो निरंजन देव को नमस्कार करते हैं, वे अपने भक्तों को श्वास - प्रतिश्वास आत्मतत्व की चितावणी कराते रहते हैं और चेतावनी का उपदेश करने वाले गुरुदेव तथा सर्व साधुओं को कोटि - कोटि हमारी वन्दना है और सब गुण - विकार से पार मुमुक्षु प्रभु - चिन्तन में रत होते हैं ॥१॥ 
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*दादू जे साहिब कौं भावै नहीं, सो हम थैं जनि होइ ।*
*सतगुरु लाजै आपणा, साध न मानैं कोइ ॥२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज अपने को उपलक्षण करके परमेश्वर प्रभु से कहते हैं कि भक्तों की करुणारूप विनती आपसे है । आपकी सर्वव्यापक सत्ता को विसार कर हम किसी भी अकर्तव्य में प्रवृत्त नहीं होवें, क्योंकि इससे आपकी दया - सिन्धुता और सतगुरु व सर्व साधुओं की महिमा लज्जित होती है ॥२॥ 
रेखता
पातसाह, काजी, राजा, रंक चाहे कोई करो, 
बंदगी कबूल सांई सबही की मानेगा ।
ब्राह्मण, चमार, हिन्दू, तुरक, हलाल खोर, 
देखसी न ऊँच नीच जाति की न जानेगा ।
एक रोज काजी ह्वै के बैठेगा खुदाय 
जर्रे - जर्रे का हिसाब, 
दूध पानी कर छानेगा ।
खेमदास आशिकों को देइगा दीदार आप, 
गाफिलों को बीन - बीन बेहवाल रानेगा ॥ 
इक बंदे किय तीन सौ, ग्रन्थ राम गुण गाथ । 
परा शब्द ऐसा भया, इनतैं मोहि न पात ॥ 
दृष्टांत(१) :- एक भक्त ने राम - गुण गान रूप कथाओं के तीन सौ ग्रन्थों की रचना की थी । अन्त में पराशब्द(ब्रह्मवाणी) उसे सुनाई दी कि इन गाथाओं से मेरी(भगवत्) प्राप्ति नहीं होती है । भगवत्प्राप्ति तो मेरे(ब्रह्म) में परम भक्ति करने से अथवा अद्वैत निष्ठा से ही होती है । प्रभु को जो प्रिय नहीं हो, वह हमसे नहीं होना चाहिये । 
दृष्टांत(२) :- जब दादूजी महाराज नारायणा पधारने से कुछ दिन पहले मोरड़ा ग्राम में तालाब पर विराज रहे थे, तब पीरान पट्टण ग्राम से ठाकुरदासजी अपने शिष्य दासजी के साथ वहाँ आये थे । ठाकुरदासजी ने नील्या गाँव में दादूजी से दीक्षा ली थी । वे दादूजी के सौ शिष्यो में माने जाते है । दासजी ने अपने एक लाख वाणी की रचना दादूजी के सामने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके रखी, तब महाराज ने पूछा - रामजी ! यह कपड़े में क्या है ? हाथ जोड़कर दासजी बोले - महाराज ! यह दास का बनाया जगतारण जहाज है । उक्त वचन सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - रामजी ! जितना परिश्रम इसकी रचना में किया, उतना परिश्रम रामजी का भजन करने मलगाते तो कितना अच्छा होता ! इतनी बड़ी रचना की क्या आवश्यकता थी ? बड़ी रचनाओं में तो प्राय: पुनरावृत्ति ही होती है, इनमें खोपड़ी खपाने से क्या लाभ ?
"मासि कागद के आसरे क्यों छूटै संसार । 
राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥"
अत: संसार - बन्धन से छूटने का सरलतम उपाय तो भगवन्नाम स्मरण ही है । यह सुनकर दासजी ने अपने ग्रन्थ को तालाब में फेंक दिया, उसके कुछ पन्ने तो साधु भक्तजनों के हाथ लगे बाकी सब जल में डूब गये । 
तब महाराज ने कहा - दासजी ! मेरा तात्पर्य यह तो नहीं था कि इतने परिश्रम व बुद्धि बल से रचित ग्रन्थ को यों ही नष्ट कर दिया जाय, पारखी सज्जन तो उससे लाभ उठा ही सकते थे । तब दासजी ने महाराज का मन्तव्य जानकर अनेक उत्तम ग्रन्थों की रचना की, जिनमें उनकी लिखी "पंथ परीक्षा" अधिक प्रचलित है । भजन साधना में भी उनकी उच्च कोटि के महापुरुषों में गणना की जाती है । 
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*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! तुम यदि समझदार हो तो, एक ईश्वर से अतिरिक्त सर्व नामरूप माया - प्रपंच से आसक्ति हटाकर मन, वचन, कर्म(काया) से एक परमेश्वर में ही अपनी लय लगाओ ॥३॥ 
रेखता
हाथी माल मुलक बहेरा घोरा पेशखाना, 
जेता कछु देखे बन्दे साथ भी न चलेगा ।
आवेगा हलकारा जब छोड़ेगा पसारा सब, 
बन्दगी बिना जहान दोजख में जलेगा ।
बूझ देख दिल में सदा भी कोई जीया नहीं, 
मौत के तमाचे आगे किसी तैं न टलेगा ।
ना कर गुमान मन खेस अलभेष देख, 
"खेमदास" खूब तन खाक बीच रलेगा ॥ 
इक बन्दे किए तीन सौ, ग्रंथ राम गुण गाइ । 
पराशब्द ऐसै भयो, इनतें मोहि न पाइ ॥ 
दृष्टांत - एक बंदे ने तीन सौ ग्रंथ रचे । उसको भारी अहंकार हो गया कि मेरे जैसा कवि कौन होगा कि मैंने तीन सौ ग्रंथ बनाए हैं ? यद्यपि वह परमेश्वर का सेवक था, फिर भी परमेश्वर ने देखा कि इसको यह अहंकार, मेरे तक आने में प्रतिबन्धक बनेगा । तब परमेश्वर ने आकाशवाणी की कि हे बन्दे ! ऐसे अहंकार करने से मुझे प्राप्त नहीं होगा । तत्काल ही उसका अहंकार नष्ट हो गया और परमेश्वर के सामने नत - मस्तक हो गया । परमेश्वर को अहंकार प्रिय नहीं है ।
(क्रमशः)

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