शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= चितावणी का अंग ९ =* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।*
*परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आप अपने जीव को उपदेश करिये कि भगवान् को अप्रिय जो काम हैं, उनको कदापि नहीं करना । परमेश्वर को प्रिय और अप्रिय क्या है ? विषय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद इन सबको त्यागकर नाम - स्मरण रूप अमृत का पान करिए ॥४॥ 
छन्द - 
पाइ अमोलक देह यह नर, 
क्यूं न विचार करै दिल अंदर । 
कामहु क्रोधहु लोभहु मोहहु लूटत हैं, 
दशहु दिशि द्वन्दर । 
तूं अब वंछत है सुरलोकहि, 
कालहु पाइ परै सु पुरंदर । 
छाड़ि कुबुद्धि सुबुद्धि हृदय धरि, 
आत्म राम भजै क्यूं न सुन्दर ॥ 
इन्द्रिन के सुख मानत है सठ, 
याहि तैं तू बहुतै दुख पावै । 
ज्यूं जल में झख मांसहि लीलत, 
स्वाद बंध्यो जल बाहर आवै । 
ज्यू कपि मूठि न छाड़त है नर, 
रसना रस बंध पर्यो बिललावै । 
सुन्दर क्यूं पहिले न संभारत, 
जो गुड़ खाइ सु कान बिंधावै ॥ 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।* 
*सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस मार्ग का अनुसरण करने से परमेश्वर रूप लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होवे, उस मार्ग में कभी भी प्रवृति नहीं करना । एवं प्रभु आराधना के परायण होकर इस मन की संकल्प - विकल्पात्मक वृत्तियों को परमेश्वर में लय करिये ॥५॥ 
मार्या जाय तो मारिये, मनवा बैरी मांहि । 
जन "रज्जब" यह छोड़ कर, मारन को कुछ नांहि ॥ 
लोभ मोह मारादि गुन, इनका तजिये साथ । 
जेहि आचरन हरि रुचै, सोई कर जगन्नाथ ॥ 
छन्द - 
हाथी को सो कान किधौं, पीपर को पान किधौं, 
ध्वजा को उड़ान किधौं, थिर न रहतु है । 
पानी को सो घेर किधौं, पवन उरझर किधौं, 
चक्र को सो फेर कोउ, कैसे कै गहतु है । 
अरहट की माल किधौं, चरखा को ख्याल किधौं, 
फेरी खाता बाल, कछु सुधि न लहतु है । 
धूम को सो धाव ताको, राखबे को चाव ऐसो, 
मन को स्वभाव सो तो, सुन्दर कहतु है ॥ 
तत्व प्राप्ति से चित यह, सहजैं ही रुक जात । 
घट चींटा तज के सिता, अन्य ओर नहि जात ॥ 
(सिता = मिश्री) 
दृष्टांत - एक घड़े में मिश्री का टुकड़ा डाल दें और उसमें एक काला मकोड़ा घुस जाये, तो वह मकोड़ा उसमें ऊपर नीचे घट के भीतर घूमता रहता है । जब मिश्री के पास पहुँच जाता है, फिर मिश्री के चाटने से उसका घूमना(चंचलता) बन्द हो जाता है, वहीं स्थिर रहता है । ऐसे ही यह शरीर घट है, इसमें आत्मारूपी मिश्री है । यह मन मकोड़ा है । मकोड़े की भांति यह चंचल मन इधर - उधर भ्रमता रहता है । जब मिश्रीरूप आत्म - विचार में स्थिर होकर उसका आनन्द अनुभव करने लगता है, तब फिर इसकी चंचलता निवृत हो जाती है । 
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।* 
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर से कभी विमुख नहीं रहना । आत्मस्वरूप चैतन्य में अपने चित्त को लगाना । यह मन मोह रूप निद्रा में बेहोश हो रहा है । इसको गुरु उपदेश द्वारा जगाकर परमात्मा के साथ लगाओ अर्थात् नाम - स्मरण में स्थिर करो ॥६॥ 
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । 
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥(गीता) 
(क्रमशः)

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