॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= चितावणी का अंग ९ =*
.
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।*
*परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आप अपने जीव को उपदेश करिये कि भगवान् को अप्रिय जो काम हैं, उनको कदापि नहीं करना । परमेश्वर को प्रिय और अप्रिय क्या है ? विषय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद इन सबको त्यागकर नाम - स्मरण रूप अमृत का पान करिए ॥४॥
छन्द -
पाइ अमोलक देह यह नर,
क्यूं न विचार करै दिल अंदर ।
कामहु क्रोधहु लोभहु मोहहु लूटत हैं,
दशहु दिशि द्वन्दर ।
तूं अब वंछत है सुरलोकहि,
कालहु पाइ परै सु पुरंदर ।
छाड़ि कुबुद्धि सुबुद्धि हृदय धरि,
आत्म राम भजै क्यूं न सुन्दर ॥
इन्द्रिन के सुख मानत है सठ,
याहि तैं तू बहुतै दुख पावै ।
ज्यूं जल में झख मांसहि लीलत,
स्वाद बंध्यो जल बाहर आवै ।
ज्यू कपि मूठि न छाड़त है नर,
रसना रस बंध पर्यो बिललावै ।
सुन्दर क्यूं पहिले न संभारत,
जो गुड़ खाइ सु कान बिंधावै ॥
.
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।*
*सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस मार्ग का अनुसरण करने से परमेश्वर रूप लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होवे, उस मार्ग में कभी भी प्रवृति नहीं करना । एवं प्रभु आराधना के परायण होकर इस मन की संकल्प - विकल्पात्मक वृत्तियों को परमेश्वर में लय करिये ॥५॥
मार्या जाय तो मारिये, मनवा बैरी मांहि ।
जन "रज्जब" यह छोड़ कर, मारन को कुछ नांहि ॥
लोभ मोह मारादि गुन, इनका तजिये साथ ।
जेहि आचरन हरि रुचै, सोई कर जगन्नाथ ॥
छन्द -
हाथी को सो कान किधौं, पीपर को पान किधौं,
ध्वजा को उड़ान किधौं, थिर न रहतु है ।
पानी को सो घेर किधौं, पवन उरझर किधौं,
चक्र को सो फेर कोउ, कैसे कै गहतु है ।
अरहट की माल किधौं, चरखा को ख्याल किधौं,
फेरी खाता बाल, कछु सुधि न लहतु है ।
धूम को सो धाव ताको, राखबे को चाव ऐसो,
मन को स्वभाव सो तो, सुन्दर कहतु है ॥
तत्व प्राप्ति से चित यह, सहजैं ही रुक जात ।
घट चींटा तज के सिता, अन्य ओर नहि जात ॥
(सिता = मिश्री)
दृष्टांत - एक घड़े में मिश्री का टुकड़ा डाल दें और उसमें एक काला मकोड़ा घुस जाये, तो वह मकोड़ा उसमें ऊपर नीचे घट के भीतर घूमता रहता है । जब मिश्री के पास पहुँच जाता है, फिर मिश्री के चाटने से उसका घूमना(चंचलता) बन्द हो जाता है, वहीं स्थिर रहता है । ऐसे ही यह शरीर घट है, इसमें आत्मारूपी मिश्री है । यह मन मकोड़ा है । मकोड़े की भांति यह चंचल मन इधर - उधर भ्रमता रहता है । जब मिश्रीरूप आत्म - विचार में स्थिर होकर उसका आनन्द अनुभव करने लगता है, तब फिर इसकी चंचलता निवृत हो जाती है ।
.
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।*
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर से कभी विमुख नहीं रहना । आत्मस्वरूप चैतन्य में अपने चित्त को लगाना । यह मन मोह रूप निद्रा में बेहोश हो रहा है । इसको गुरु उपदेश द्वारा जगाकर परमात्मा के साथ लगाओ अर्थात् नाम - स्मरण में स्थिर करो ॥६॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥(गीता)
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें