*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू सांई को संभालतां, कोटि विघ्न टल जांहि ।*
*राई मन बैसंदरा, केते काठ जलांहि ॥९४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर का अखंड सुरति में स्मरण करने से जन्म - जन्मान्तरों के कर्म - बन्धन कट जाते हैं । जैसे अल्प अग्नि से असंख्य वृक्ष जल जाते हैं, इसी तरह आत्म - ज्ञान रूपी अग्नि के प्रज्वलित होते ही कर्मरूप काष्ठ प्रदग्ध हो जाते हैं ॥९४॥
"हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तगतैरपि ।
अनिच्छयाSपि संस्पृष्ठो दहत्येव हि पावक: ॥
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*करतूति कर्म*
*कर्मे कर्म काटै नहीं, कर्मे कर्म न जाइ ।*
*कर्मे कर्म छूटै नहीं, कर्मे कर्म बँधाइ ॥९५॥*
इति निष्कर्म पतिव्रता का अंग संम्पूर्ण ॥अंग ८॥साखी ९५॥
टीका - हे कर्म करने वाले ! सकाम कर्म करने से कर्मों के बंधन नहीं कटते हैं । सकाम कर्मों के करने से जन्म - जन्मान्तरों के संचित कर्म नहीं छूटते हैं । बल्कि सकाम कर्मों से तो जीव बँधा रहता है अर्थात् यज्ञ आदि काम्य कर्मों से कर्मबंधन नहीं कटते हैं । प्रत्युत नाना काम्य कर्मों के वशीभूत होकर, यह प्राणी कर्म - बन्धन में ही बँधा रहता है और जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमता है । इसलिए आत्म - ज्ञान के द्वारा कर्मों से मुक्त होइये ॥९५॥
"कर्मण्यारभते देही, देहेनात्मानुवर्तिना ।
कर्मभिस्तनुते देहमुभयं, त्वविवेकत: ॥
"यावत्क्रिया: तावत् इदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्ध:" -भागवत
"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि"(ब्रह्मसूत्र)
जीवात्मा को कर्मानुसार शरीर प्राप्त होता है और सूक्ष्म शरीर द्वारा किये गये कर्मों का फल जीव को भुगतना अवश्य पड़ता है । बिना कर्मों का फल भोगे कोई जीव बच नहीं सकता ।
"घट घट दादू कहि समझावे, जैसा करै सो, तैसा पावे ।'
चाहे करोड़ों युग क्यों न बीत जायें ।
राम नाम निज छाड़कर, कीजे आम धरम ।
ज्यों पारस बिन लोह का, कदे न कटहि करम ॥
इति निष्कर्म पतिव्रता का अंग टीका और दृष्टांन्तों सहित सम्पूर्ण ॥अंग ८॥साखी ९५॥
(क्रमशः)
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