मंगलवार, 12 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(२८/३०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*साधु न कोई पग भरै, कबहूँ राज दुवार ।*
*दादू उलटा आप में, बैठा ब्रह्म विचार ॥२८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर के प्यारे संतजन अपनी वृत्ति को कभी भी मायावी सम्पत्ति में नहीं लगाते हैं और राजा महाराजा धनाढ्य पुरुषों के यहाँ नहीं जाते, क्योंकि निर्वासनिक हैं । उनको किसी से क्या लेना है ? अपने मन इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके वे ब्रह्मस्वरूप आत्मा में लय लगाकर रहते हैं ॥२८॥ 
तत्त्वज्ञस्य तृंण शास्त्रं, वीरस्य समरं तृणम् । 
विरक्तस्य तृणं नारी, निस्पृहस्य नृपस्तृणम् ॥ 
राजदुवारे आमजन, तीन वस्तु को जाय । 
कै मीठा, कै मान को, कै माया की चाय ॥ 
प्रसंग : - जब राजा मानसिंह ने अपने विश्‍वासपात्र सूजा खींची को आमेर दादूजी महाराज को फतहपुर सीकरी लाने के लिये भेजा, तब महाराज ने यह साखी खींची को कही थी ।
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*आशय - विश्राम*
*दादू अपणे अपणे घर गये, आपा अंग विचार ।*
*सहकामी माया मिले, निहकामी ब्रह्म संभार ॥२९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने अन्तःकरण में जैसी जिसकी धारणा है, उसके अनुसार ही वह उस पद को प्राप्त कर लेता है । सकामी पुरुष अपनी कामनारूप वासना के वशीभूत होकर माया में अर्थात् माया के कारण संसार में जन्म लेते हैं और निष्कामी परमेश्‍वर के भक्त संतजन आत्मस्वरूप ब्रह्म का विचार करके ब्रह्मरूप हो जाते हैं ॥२९॥ 
"आसुरिं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । 
मामप्राप्यैव कौन्तेय ! ततो याक्त्यधमां गतिम् ॥ "
सुत आदिक स्वप्न समान हैं, यह निश्‍चय कर जान । 
कहा मंत्री से भूप ने, दोनों एक समान ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा तत्त्ववेत्ता थे । शैय्या पर सो रहे थे । उन्हें स्वप्ना आया कि मानो मेरे चार राजकुमार बेटे हुए हैं । फिर स्वप्न में ही विद्या आदि अध्ययन करके योग्य हो गये । अचानक चारों की मृत्यु हो गई । राजा की निद्रा से आँख खुल गई । इधर मंत्री आकर बोला - हुजूर ! आपके एक ही राजकुमार थे, उनका भी आज निधन हो गया । राजा कुछ न बोला । "राजकुमार का आपको शोक नहीं हुआ, क्या कारण है ?" राजा - चार राजकुमार मर चुके, उनका सोच करूं या इस एक का । मंत्री - वे तो स्वप्न के थे । राजा - "यह भी तो स्वप्न का ही है । निद्रा से आँख खुलते ही वह सृष्टि कहाँ है ? ऐसे ही बोध काल में यह सृष्टि कहाँ रह जाती है ? दोनों समान हैं । शोक तो यह करो कि मनुष्य - जन्म पाकर हमने आत्मा को प्राप्त नहीं किया ।" राजा के वचन सुनकर मंत्री नत - मस्तक हो गया । ब्रह्मऋषि कहते हैं, कि जैसी जिसकी धारणा है, वह उसी पद को प्राप्त करता है ।
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*माया*
*दादू माया मगन जु हो रहे, हमसे जीव अपार ।*
*माया माहीं ले रही, डूबे काली धार ॥३०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारीजन माया में मग्न रहते हैं और यह माया उनको अपनी वासनारूप धार(पाप की भावना) में लेकर संसार के जन्म - मरण में डुबोती है । ऐसे संसारी जीव पुनः पुनः माया की धार में बहते रहते हैं और पाप - कर्म करते रहते हैं ॥३०॥ 
सैली माया मोहनी, मोहे मुनि जन भूप । 
कहै कबीर डहके किते, पेखत परि हैं कूप ॥
(क्रमशः)

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