सोमवार, 11 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(२५/७)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*माया के संग जे गये, ते बहुरि न आये ।*
*दादू माया डाकिनी, इन केते खाये ॥२५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस माया का जिन्होंने संग किया, वे सभी जीव चौरासी में बह गये, फिर वापिस मनुष्य देह में आना उनका असम्भव है । यह माया भारी डाकिनी है । इसने देवताओं, मुनियों, मनुष्यों, पशु पक्षी तिर्यक् योनि के जन्तुओं को, सब ही को खा लिया है ॥२५॥ 
‘जैमल’ बैरिण को विश्‍वास कर, बिसरे राम दयाल । 
मन मूरख समझै नहीं, माया जीव को काल ।
फकीर माया देखकर, हेला दिये हजार । 
या डाकिन खा जाइगी, दौड़ो नाखै मार ॥ 
दृष्टान्त - एक फकीर मार्गं में चले आ रहे थे । माया रूप स्त्री भी प्रकट होकर फकीर के साथ चलने लगी । फकीर कुसंग जानकर उससे अलग हो गए । आगे एक जाट खेत बो रहा था । खेत की डोली के नीचे बैठकर रोने लगी । जाट रोने की आवाज पर आया और देखा, एक स्त्री रो रही है । 
जाट पूछने लगा -"बाई ! क्यों रोती है ?" उधर जाट के हल से एक बैल खोलकर चोर भगा ले गया । कुछ देर में वह बोली, "मैं इसलिए रो रही हूँ कि एक गऊ के जाये बैल से हल चला रहे हो ।" जो जाट ने हल की तरफ देखा, तो एक ही बैल दिखाई दिया । उस बैल की खोज में जाट चला, तो दूसरे बैल को दूसरा चोर ले गया । जाट को चौपट कर दिया । फिर वहाँ से चली । 
फकीर को बोली - देखा मेरा रंग । कुछ दूर चलकर, चार अशर्फ़ियों की थैली बनकर पड़ गई । सामने से चार मनुष्य आ रहे थे । फकीर ने दूर से आवाज दी, "रास्ते में डाकिन पड़ी है, खा जायेगी ।" फकीर की आवाज न मानकर भी वे पुरुष आगे ही बढ़े तो देखा कि चार अशर्फियों की थैली पड़ी हैं । वे देखकर राजी हो गए । बोले - "फकीर बदमाश है, वह इसे खुद ले जाने की इच्छा से हमें मना कर रहा था ।" 
दो जने बाजार में गए । उन्होंने तो अच्छे - अच्छे भोजन कर लिये और उन दो के लिये जहर के लड्डू बनवा लिये । सोचा, चारों थैली हमारे पास रह जाएँगीं, वे दोनों तो मर ही जाएँगे । इधर उन दोनों ने विचार किया कि आते ही उनको दूर से गोली से उड़ा दो, अपन दो - दो थैली ले लेंगे । इन्होंने देखते ही दोनों को गोली से उड़ा दिया और लड्डू लाये थे, उनको खाकर लम्बे ही सो गए । माया स्त्रीरूप से प्रकट होकर चलने लगी और फकीर को कहा - "देखा मेरा रंग ।" फकीर ने कहा - "बस दया कर ।" ऐसे माया सम्पूर्ण संसार को खाती रहती है । यही परमगुरु कहते हैं कि "दादू माया डाकिनी, इन केते खाये ।"
मैतर इसा एक वो, रोटी खाई सेक । 
मृग नदी माया गिरी, चोर मरे भो शेख ॥ 
द्वितीय दृष्टान्त : - महान् सन्त ईसा ने एक व्यक्ति को छ: रोटी दे रखी थी, जिसमें से वह व्यक्ति एक रोटी खा गया । ईसा ने देखा तो रोटियां पांच ही मिली । ईसा ने उस व्यक्ति से पूछा कि तूने रोटी खाई है क्या ? तो वह नट गया कि मैंने तो नहीं खाई । रास्ते में एक मृत मृग पड़ा हुआ था । ईसा ने भगवान् से उसे जीवित करने की प्रार्थना की । मृग जीवित होकर भाग गया । 
ईसा ने कहा - "जिस ईश्‍वर की कृपा से यह मृग जीवित हो गया, उस ईश्‍वर की शपथ खाकर कह कि तूने रोटी खाई है क्या ?" वह बोला - मैंने तो नहीं खाई । आगे एक सूखी नदी मिली । ईश्‍वर की प्रार्थना करके ईसा ने उसमें पानी बहा दिया । ईसा ने फिर पूछा कि जिस ईश्‍वर की कृपा से नदी में पानी प्रवाहित होने लगा, उसकी शपथ खाकर कह कि तूने रोटी खाई है क्या ? वह व्यक्ति फिर नट गया । आगे चले तो माया की ढेरी मिली ।
ईसा ने पूछा - यह माया किसकी है ? उसने उत्तर दिया - यह मेरी है । ईसा बोले - यह माया उसकी है, जिसने रोटी खाई है । तब उसने कहा - रोटी मैंने खाई है और वह माया के पास जा खड़ा हुआ । इतने में वहाँ बहुत से चोर आ गए और उन्होंने माया खोसली और उस व्यक्ति को मार दिया । फिर चोर माया के बँटवारे पर झगड़ पड़े और आपस में लड़ते हुए मारे गये । इस माया ने उसमें आसक्त मिथ्यावादी, लोभी और असन्तोषी लोगों का विनाश कर दिया । तभी कहा है - "दादू माया डाकिनी ।"
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*दादू माया मोट विकार की, कोइ न सकै डार ।*
*बहि बहि मूये बापुरे, गये बहुत पचि हार ॥२६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया तो मानो विषय और विकारों की पोटली है । संसारी प्राणी विषय - वासनाओं के वशीभूत होकर इस माया को कोई भी नहीं छोड़ता है । विचारे देह - अध्यासी प्राणी, इस माया के अनन्त विषय प्रभाव में बह - बह कर मर जाते हैं । कितने ही प्राणियों ने माया का संग्रह कर - करके मनुष्य तन को नष्ट कर दिया है । इस माया के चक‘ से तो कोई बिरले ही पुरुष मुक्त होते हैं ॥२६॥ 
माया कुंजर करक ज्यूं, सूती जंगल मांहिं । 
जंबुक रूपी जीव सब, ऐंच ऐंच मर जांहिं ॥ 
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*दादू रूप राग गुण अनुसरे, जहँ माया तहँ जाइ ।* 
*विद्या अक्षर पंडिता, तहाँ रहे घर छाइ ॥२७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! रूप, राग, गुण आदि सब माया का अनुसरण करते हैं अर्थात् माया के पीछे - पीछे चलते है । रूपवान् , गायन करने वाले रागी और गुणीजन, गुणों को प्रगट करने के लिए माया में ही आसक्ति रखकर एवं विद्यायुक्त विद्यावान, कविजन, वाचक पंडित ये सब जहाँ माया होवे, उसी घर में जाकर वास करते हैं और फिर माया की उपासना में रत्त रहते हैं ॥२७॥ 
यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन: स: 
पंडित: स: श्रुतवान् गुणज्ञ: । 
स एव वक्ता स च दर्शनीय: 
सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति ॥ 
सूरदास गुणि चार चलि, गये बादशाह पास । 
हय सैया भोजन मनुज, करी परीक्षा जास ॥ 
दृष्टान्त - चार सूरदास थे । एक एक गुण चारों जानते थे । उन्होंने विचार किया था कि बादशाह के पास चलकर अपने गुणों का प्रकाश करें । चारों बादशाह के यहाँ गये । बादशाह को यथा - योग्य नमस्कार किया । 
बादशाह बोला - "कैसे आये हो ?" "हुजूर ! हम चारों, चार गुण जानते हैं । एक तो घोड़े की परीक्षा जानता है । दूसरा शैया(सेज) की, तीसरा भोजन की और चौथा नर की परीक्षा करना जानता है ।" बादशाह ने हुक्म दिया, इनको अमुक जगह ठहरा दो । आधा - आधा किलो जौ का आटा और नमक, दाल, इनकी खुराक के लिए दे दिया जावे । 
एक व्यापारी बादशाह के यहाँ घोड़ा लेकर आया । सूरदास को बुलाया । उसने घोड़े पर हाथ फेरा, बोला - हुजूर ! यह घोड़ा भैंस का दूध पीया हुआ है । भैंस की चाल चलेगा । घोड़े के मालिक को पूछा - "क्यों भई ! ठीक है ?" बोला - "हाँ । इसकी मां मर गई थी, तो भैंस का दूध पिला कर इसको पाला है ।" 
दूसरे दिन बादशाह के यहाँ सेज लेकर आया । सूरदास को बुलाया । सूरदास पलंग पर हाथ घुमाकर, थपथपा कर बजाया, बोला - "अशुभ है । इसके चारों कोनों पर चार बिनोले हैं और एक बिनोला बीच में है ।" खुलवा कर देखा, तो वैसा ही निकला । बासमती चावल आये । सूरदास को बुलाया । सूरदास ने हाथ में लेकर सूंघा और बोला - इनमें मुर्दे की बास आती है । 
बादशाह ने पूछा - यह खेत कहाँ है ? चावल वाला बोला - "श्मशान के नजदीक ।" चौथे सूरदास से बादशाह बोले - अब तुम मेरी परीक्षा करो । सूरदास बोला - "हुजूर ! आप अपनी परीक्षा मत कराओ । किसी और की करा लो ।" बादशाह ने कहा - नहीं, मेरी ही करो । सूरदास बोला - "आपकी परीक्षा तो हम जिस रोज आये, उसी दिन कर ली थी । आप किसी कंजूस बनिया की औलाद हैं ।" बादशाह चुप हो गया । समझ गया कि इनके तीनों प्रमाण तो सिद्ध हो गये थे, अब यह चौथा प्रमाण भी सही है । बादशाह बोला - सूरदास, मैं निश्‍चय कैसे करूं ? सूरदास - "अपनी माता से पूछो ।" बादशाह पूछकर वापिस आया और सूरदास के सामने नत - मस्तक हो गया और बोला - "यह बात किसी को नहीं कहना ।" सूरदास - "ऐसी बात कहने की होती है क्या ?" बादशाह ने चारों सूरदासों को धन देकर विदा कर दिया ।
ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं - "रूप राग गुण अनुसरे, जहँ माया तहँ जाइ ।" रूप, राग(प्रेम), गुण आदि सब माया के पीछे चलते हैं । 
(क्रमशः)

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