मंगलवार, 12 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(३१/३२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*शिश्‍न स्वाद*
*दादू विषय के कारणै रूप राते रहैं,* 
*नैन नापाक यों कीन्ह भाई ।*
*बदी की बात सुनत सारा दिन,* 
*श्रवण नापाक यों कीन्ह जाई ॥३१॥* 
*स्वाद के कारणै लुब्धि लागी रहे,* 
*जिभ्या नापाक यों कीन्ह खाई ।*
*भोग के कारणै भूख लागी रहे,* 
*अंग नापाक यों कीन्ह लाई ॥३२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन इन्द्रियों के स्वादों में फँसकर अपने नेत्र इन्द्रिय को रूप भोगने की इच्छा से अति सुन्दर स्त्री आदि के रूप में लगाकर नापाक(अपवित्र) बनाते हैं और सब दिन दूसरों की निन्दा चुगली आदि में श्रोत्र इन्द्रिय को लगातार अपवित्र करते हैं ।
हे जिज्ञासुओं ! साधारण मनुष्य की इच्छा स्वादों में लगी रहती है, अतः उसने मधुर, कटुक, क्षार, कषाय, अम्ल, तिक्त इन छः प्रकार के रसों में अपनी जिह्वा को लगाकर नापाक बना ली है । स्त्री - संभोग के लिये कामेच्छा बढ़ती ही रहती है । इस प्रकार अज्ञानी संसारी मनुष्यों ने स्त्री आदि पदार्थों में इस शरीर को लगाकर नापाक कर दिया है । इन विषयो को त्यागकर जो अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियों को ईश्‍वर की तरफ लगाता है, वह पुरुष अपना कल्याण कर लेता है ॥३१/२॥ 
गांधारी सुत बज्र कर, अमी नैन की डार । 
जल्लण जट कंचन किये, बाट बणिक के सार ॥ 
दृष्टान्त - राजा धृतराष्ट्र की रानी गांधारी पतिव्रता थी । अपनी आँखों के पट्टी बांधकर रहा करती थी । महाराज भोजन करने आते, तब पट्टी खोलती । भोजन कराके फिर पट्टी चढ़ा लेती । महाभारत के समय भगवान् कृष्ण से दुर्योधन ने पूछा कि ऐसी कोई युक्ति बतलाओ जो मेरा शरीर वज्र का बन जाय । भगवान् बोले - राजा युधिष्ठिर जानते हैं । दुर्योधन ने जाकर युधिष्ठिर से पूछा । युधिष्ठिर बोले - आपकी माताजी आँखों की पट्टी खोलकर आपके नंगे शरीर को देख लें, तो आप वज्र के बन जाओगे । तत्काल माता के पास आया और बोला - माताजी ! आप मेरे शरीर को देख लेना, मैं कपड़े उतार कर आता हूँ । माता ने कहा - ‘अच्छा पुत्र ।’ भगवान् कृष्ण जान गये और तत्काल दुर्योधन के महल में प्रकट हो गये । बोले - दुर्योधन ! क्या करते हो ? दुर्योधन बोलाः - वज्र का बनने माता के पास जाता हूँ । भगवान् - जवान लड़के का माता के सामने नंगा जाना, शास्त्र में भारी पाप बतलाया है । दुर्योधन - वज्र का बनना है । भगवान् - फूलों का कच्छा पहन कर जाओ, वे वस्त्र नहीं हैं ।(भारत में फूलों के वस्त्र भी तैयार होते थे) । दुर्योधन - "अच्छा ।" कृष्ण चले गये । दुर्योधन माता के सामने से निकले । गांधारी ने नेत्रों से पुत्र के बदन पर अमी डालकर वज्र का बना दिया । गांधारी - "पुत्र ! वस्त्र धारण कर आना ।" फिर पट्टी चढ़ा ली । दुर्योधन आया । "पुत्र ! जितनी दूर में फूलों का कच्छा पहना था, वह अंग तुम्हारा कच्चा है । वहाँ कोई हथियार लगेगा, तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी, क्योंकि वह अंग मुझे दिखलाई नहीं पड़ा है ।" रुकी हुई इन्द्रिय में ऐसी ताकत होती है । 
दूसरा दृष्टान्त - महात्मा जल्लण करके जाट थे । वे अनायास ही एक भक्त बनिये की दुकान पर आकर बैठे और उस बनिये की सरलता निश्छलता देखकर तोलने के बट्टों पर आपने दृष्टि डालकर संकल्प किया कि ये स्वर्ण के हो जावें । बाट तत्काल स्वर्ण के बन गए । बनिया चरणों में नमस्कार करके कहने लगा, "धन्य हो ! धन्य हो !" ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि नेत्र आदि इन्द्रियां निग्रह की हुई हों, तो उनकी ताकत उनमें रहती है । तब संकल्प मात्र से सब होता है ।
(क्रमशः)

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