बुधवार, 13 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(३३/३५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू नगरी चैन तब, जब इक राजी होइ ।*
*द्वै राजी दुख द्वन्द्व में, सुखी न बैसे कोइ ॥३३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार में जैसे एक राजा की अधीनता में सुख - सम्पत्ति रहती है, वैसे ही कायारूपी नगरी में शुद्ध मनरूप राजा होने से ‘राजा’ मन, और ‘प्रजा’ पच्चीस प्रकृतियां, पंच ज्ञानेन्द्रियों सहित सब शान्त वास करते हैं । और जहाँ दो का शासन होवे, वहाँ राजा और प्रजा, दोनों में ही अशान्ति रहती है, सुख से नहीं बसते हैं ॥३३॥ 
*इक राजी आनन्द है, नगरी निश्‍चल वास ।*
*राजा प्रजा सुखी बसै, दादू जोति प्रकाश ॥३४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक के राज में सुख होता है । प्रजागण और राजा सुख से बसते हैं तथा सुख - सम्पत्ति की वृद्धि होती है । दार्ष्टान्त में, कायारूप नगरी में राम का राज होने से ज्योतिर्मय प्रकाश रूप परमेश्‍वर में जिज्ञासुओं की वृत्ति स्थिर रहने से परम आनन्द उत्पन्न होता है ॥३४॥ 
काया नगरी राज द्वै, कैसैं बैसहि चक्क । 
‘जगन्नाथ’ इक राज बिन, अहनिसि धक्का धक्क ॥ 
दुसह दुराज प्रजान को, क्यों न होई दुख छन्द । 
अधिक अंधेरो जग करत, मिलि मावस रवि चंद ॥ 
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*शिश्‍न स्वाद*
*जैसे कुंजर काम वश, आप बंधाणा आइ ।*
*ऐसे दादू हम भये, क्यों कर निकस्या जाइ ॥३५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक काम(जननेंद्रिय) के स्वाद में फँसकर वन में हाथी कागज की हथिनी देखकर स्पर्श के लिए आता है और गड्ढ॓ में गिर जाता है । फिर कामान्ध हाथी अपने शरीर में अंकुश खाता रहता है । दार्ष्टान्त में, अज्ञानी कामी मनुष्य, स्त्री आदि से काम - वासना अर्थ प्रीति करके संसार रूपी अंध कूप में गिरता है, पुनः पुनः जम की मार खाता है । अब उस स्त्री आदि के फन्दों से कैसे मुक्त होवे ? । ३५॥ 
कुरंग - मातंग - पतंग - भृंग - मीनहता: पंचभिरेव पंच । 
एक: प्रमादी स: कथं न हन्यते य: सेव्यते पंचभिरेव पंच ॥ 
शेर -
माया के मद को पीकर, फिरता अविद्या रात में । 
चश्म अन्दर के मीचे, फँस गया जाति जमात में ।
देख करणी आपनी, हस्ती पड़ा है खात में । 
अंकुश खाता शीश पर, बँध कर विषयों की गात में ॥ 
(खात = खड्ढा)
(क्रमशः)

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