बुधवार, 13 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(३६/३८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*जैसे मर्कट जीभ रस, आप बंधाणा अंध ।*
*ऐसे दादू हम भये, क्यों कर छूटै फंध ॥३६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार बन्दर रसना के स्वाद में फँसकर बन्धन में आ जाता है । बन्दर पकड़ने वाले छोटे मुँह के घड़े में चने डालकर उसे जमीन में गाड़ देते हैं । उसका मुँह बाहर रखते हैं । थोड़े चने आस - पास बखेर देते हैं । बन्दर दौड़कर आता है, घड़े में हाथ डालता है । चने बहुत होने से दूसरा हाथ भी डाल देता है । दोनों मुट्ठी भर कर हाथ बाहर निकालना चाहता है । मुँह छोटा होने से हाथ नहीं निकल पाते । इतने में ही बाजीगर गले में जंजीर डालकर कब्जे में कर लेता है । इसी प्रकार अज्ञानी जीव, विषयरूपी चनों के स्वाद में, मायारूप बाजीगर के फंदे में फँस जाता है और फिर उसके नचाये नाचता रहता है ॥३६॥ 
शब्दादिभि: पंचभिरेव 
पंचपंचत्वमापु: स्वगुणेन बद्घा: । 
कुरंग मातंग पतंग मीनभृंगा 
नर: पंचभि: रंचित: किम् ॥ 
*ज्यों सूवा सुख कारणै, बंध्या मूरख मांहि ।*
*ऐसे दादू हम भये, क्यों ही निकसै नांहि ॥३७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे तोता पक्का फल खाने के स्वाद में आकर आप ही पिंजरे में बंध जाता है । तोता पकड़ने वाले दो चार पक्के फल जमीन पर डाल देते हैं । एक पानी का कुंडा रख देते हैं । कुंडे के ऊपर घूमने वाली एक चकल्ली लगा देते हैं । तोता आकर फल खाता है, ऊपर फिरनी पर जा बैठता है । फिरनी घूम जाती है, तोता पानी के कुंडे में अपना प्रतिबिम्ब देखता है और डर कर बोलने लगता है । पंजों से फिरनी को नहीं छोड़ता है । जानता है कि डूब कर मर जाऊँगा । तोता पकड़ने वाला तत्काल आता है । तोते को पकड़कर पिंजरा रूपी कैद में बन्द कर लेता है । दार्ष्टान्त में, संसारीजन नाना प्रकार के माया के सुखों को भोगते हुए आप ही बन्धन में बँध जाते हैं ॥३७॥ 
ज्यूँ सूवा शठ ज्ञान बिन, नलिनी लटकै आप । 
त्यों रज्जब हम होइ करि, देहिं कौंन शिर पाप ॥ 
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*जैसे अंध अज्ञान गृह, बंध्या मूरख स्वाद ।*
*ऐसैं दादू हम भये, जन्म गँवाया बाद ॥३८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे अन्धा किसी के घर में भोजन करने घुस जावे, तो फिर वह अपने आप बाहर नहीं आ सकता, इधर - उधर धक्के खाता है । ऐसे संसारी अज्ञानी मनुष्य, ज्ञान - विचाररूपी नेत्रों से हीन, माया के स्वादों में फँस कर संसार - बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते । वह अपने मनुष्य - जन्म को वृथा ही गँवा देते हैं ॥३८॥ 
(क्रमशः)

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