गुरुवार, 14 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(३९/४०)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू बूड रह्या रे बापुरे, माया गृह के कूप ।*
*मोह्या कनक अरु कामिनी, नाना विधि के रूप ॥३९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस माया ने स्त्री, सोना और अनेकों रूप बनाकर जीवों को आकर्षित कर लिया है । कुंजर, मर्कट, मछली, भँवरा, मृग आदि की भांति ही ‘बापुरे’, कहिये विचारे अज्ञानीजन, भोगों के वश होकर संसार के दुःखों में डूब रहे हैं ॥३९॥ 
कबीर रज बीरज की कली, तापर साज्या रूप । 
राम नाम बिन बूडि है, कनक कामिनी कूप ॥ 
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*शिश्‍न स्वाद* 
*दादू स्वाद लागि संसार सब, देखत परलै जाइ ।*
*इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बंधाणै आइ ॥४०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विषयी मनुष्य, इन्द्रियों के स्वादों में लगकर तत्त्ववेत्ताओं के देखते - देखते नाश को प्राप्त हो रहे हैं । परन्तु फिर भी विषय - सुख के लिए अज्ञानीजन सत्यस्वरूप परमेश्‍वर की प्राप्तिरूप सुख को छोड़कर आप ही माया और माया के कार्य मोह - बन्धन में बँध गये हैं ॥४०॥ 
साहिबजादा उजीर पुनि, सिक्कदार कुतवार । 
चारों फंदे मे पड़े, भूले काम लगार ॥ 
बुधि कर च्यारूं बस किये, धर्म ध्वजा बल जास । 
साह रीझ सरबस दियो, सु कहै जगजीवनदास ॥ 
दृष्टान्त - एक बादशाह के नगर में एक पतिव्रता देवी थी । वह बड़ी रूपवती और शीलवती थी । उसके पतिदेव विदेश में गये हुए थे । उसके रूप की महिमा सर्वत्र फैल रही थी । शहर के कोतवाल ने विचार किया, मैं उससे प्यार करूं । उसके एक नौकरानी थी । उसको बोला - तुम अपनी मालकिन से बोलना कि कोतवाल साहब आपसे मिलना चाहते हैं । ऐसे ही वहाँ के दीवान ने भी खबर भेजी । वजीर और शहजादा ने भी ऐसी ही खबर भेजी । 
वह समझ गई और चार बड़े सन्दूक मंगवाये । नौकरानी को समझा दिया कि तुम पन्द्रह - पन्द्रह मिनट पर आकर ऐसे बोलना । कोतवाल को खबर करा दी कि आज रात को १० बजे आप को अमुक देवी ने याद किया है । कोतवाल बहुत खुश हुआ, सही टाईम पर पहुँचा । नौकरानी ने दरवाजा बन्द कर दिया । पतिव्रता देवी और कोतवाल की बात हो रही थी । पन्द्रह मिनट के बाद किवाड़ खटखटाये । नौकरानी बोली - "कौन है ?" "दीवान ।" मालकिन से जाकर बोली, ‘दीवान साहब आये हैं ।’ कोतवाल घबराये "मुझे कहीं छिपा दो ।" देवी बोली - "इस सन्दूक में बैठ जाइये । उनसे बात करके उनको भेज दूँगी, आपको निकाल लूंगी ।" दासी ने दरवाजा खोला ।
दीवान साहब आये । उस रोज एक घंटे में ही चारों को आमंत्रित करके बुलाये थे । इस प्रकार दीवान साहब को भी बन्द किया । वजीर के आने पर १५ मिनट के बाद शाहजादा आ गया । वजीर को बन्द कर दिया । दासी को पहले बतला दिया कि शहजादा आने के बाद तुम खुद ही दरवाजा खटखटा देना और बोलना "आप के पति आ गये हैं ।" 
जब दासी आकर बोली कि आप के पतिदेव आ गये । शाहजादा घबरा गया, "मुझे छिपाओ ।" चौथे सन्दूक में शाहजादा को बन्द कर दिया । चारों के ताले लगाकर नौकरानी और मालकिन निर्भय होकर रात को सो गए । प्रातःकाल अपनी दिनचर्या से निमट कर किसी वाहन में चारों सन्दूक रखवाए और देवी ने सौदागर के रूप में मर्दाने कपड़े पहनकर बाजार के बीच वाहन लाकर खड़ा कर दिया और आवाज लगवाई, "इन चारों सन्दूकों में अजीब माल है, जिसको खरीदना हो, आ जाओ ।" 
दुनिया एकत्रित हो गई । पहले सन्दूक पर कीमत पच्चीस हजार, दूसरे पर पचास हजार, तीसरे पर पचहत्तर हजार, चौथे पर एक लाख लिखे थे । खरीदने वाले तैयार हो गए । सौदागर बोला - सन्दूक राजा के दरबार में खोले जाएँगे । राजा के आम खास दरबार में सौदागर ने लाईन से सन्दूक रखवा दिये । राजा को नमस्कार किया । राजा बोले - "इनमें क्या चीज हैं ?" "हुजूर के सामने अभी दिखलाई जाती हैं ।" पच्चीस हजार का ताला खोला, ढक्कन हटाया, कोतवाल साहब अन्दर ! शरमा गये । बादशाह ने देखा और बोले - ‘इधर बैठो ।’ 
बादशाह समझ गया कि सौदागर बहुत ही बुद्धिमान है, तरीके से गिरफ्तार किया है । दूसरा पचास हजार का सन्दूक खोला, ढक्कन हटाया । बादशाह ने देखा, तो दीवान बैठा है । "इधर बैठो ।" तीसरा पचहत्तर हजार का संदूक खोला, उसमें वजीर को देखा । उसे भी बादशाह ने कहा, "इधर बैठो ।" चौथा एक लाख का संदूक खोला । बादशाह ने अपना शहजादा देखा । तत्काल बादशाह की लाल आँखें हो गईं । बोला - "तुम भी इधर आकर बैठो ।" बादशाह सौदागर से बोले - "आप कौन हैं ? मुझे भारी आश्‍चर्य हो रहा है, आप प्रकट हो जाओ ।" 
पतिव्रता देवी बोली - "मैं आपकी धर्म की पुत्री हूँ, आप मेरे पिता हैं । ये चारों कई दिनों से मेरा धर्म नष्ट करने के लिये पीछे पड़े हुए थे । मैंने सोचा कि बादशाह के दरबार में इनको पेश कर दूं । मेरा अपराध क्षमा हो । मैंने आपके सामने अपनी चतुरता से इनको लाकर पेश किये हैं । फैसला पिता के हाथ में है, जैसा भी करें ।" बादशाह यह सुन कर गद्गद् हो गया और बोला, इन चारों को देश निकाला दे दिया जावे और प्रसन्न होकर उस पतिव्रता देवी को अपनी राजगद्दी देकर बादशाह मालिक की याद में लयलीन हो गये ।
ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि भोग - वासना में फँस कर इस प्रकार बन्धन में बँध जाते हैं ।
(क्रमशः)

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