॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू गतं गृहं, गतं धनं, गतं दारा सुत यौवनं ।*
*गतं माता, गतं पिता, गतं बंधु सज्जनं ।*
*गतं आपा, गतं परा, गतं संसार कत रंजनं ।*
*भजसि भजसि रे मन, परब्रह्म निरंजनं ॥४७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अब उपरोक्त सिद्धान्त को ही इस साखी से फिर स्पष्ट करते हैं । हे प्राणधारी ! जिन गृह - घर, दारा - स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, सम्पदा आदि के निमित्त तुमने सत्यस्वरूप ईश्वर को बिसार दिया है, ये सब तो नाशवान् हैं । और क्या कहें ? यह माया की रचना सम्पूर्ण संसार ही विनाशी है । प्रिय ! इस संसार में ‘रंजन’ कहिए सुख कहाँ है ? यह तो स्वप्नवत् संसार है । इस मिथ्या संसार में क्या आसक्त हो रहा है ? हे साधक ! इस सम्पूर्ण संसार से अनासक्त रहकर निरंजन स्वरूप परब्रह्म का नाम स्मरण कर ॥४७॥
स्थिरं न राज्यं धनयौवनादि:,
स्थिरं न देहो वनितासुतादि: ।
स्थिरं न स्वर्गं नहि नागलोको,
स्थिरं हरे: पादपद्मं शरण्ये ॥
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*आसक्ति मोह*
*जीवों मांही जीव रहै, ऐसा माया मोह ।*
*सांई सूधा सब गया, दादू नहीं अंदोह ॥४८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस माया का ऐसा चमत्कार है कि संसारीजनों का जीवरूप मन, जीव में, स्त्री - पुत्र - पौत्र आदि इन परिजनों में ही रात - दिन मस्त रहता है । यह ऐसा माया का कार्य मोह - ममता है । इसलिए परमेश्वर की प्राप्तिरूप यह मनुष्य - जन्म - रूपी अवसर अज्ञानियों का वृथा जा रहा है, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है । इस प्रकार अपना सर्वस्व खोकर भी अज्ञानी जीवों को कुछ भी अंदोह, कहिए चिंता, शोक एवं विवेक नहीं हुआ है । अब भी ‘सांई सूधा’, कहिए प्रभु के सन्मुख होने से माया - मोह नष्ट हो जायेगा । प्रभु की अनन्य भक्ति करने से सम्पूर्ण माया के जाल कट जायेंगे ॥४८॥
(क्रमशः)
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