शनिवार, 16 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(४९-५१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= माया का अंग १२ =*
.
*विरक्तता*
*माया मगहर खेत खर, सद्गति कदे न होइ ।*
*जे बंचे ते देवता, राम सरीखे सोइ ॥४९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया और माया का कार्य, मगहर भूमि के समान है । जो इससे प्रीति करता है, स्नेह करता है, रत्त होता है, वह अज्ञानी पुरुष खर आदि चौरासी कोटि योनियों में जन्मता - मरता रहता है और दुःख पाता है । जैसे काशी के परे मगहर भूमि सुनी जाती है, जिसमें मरे तो गधे की योनि पाता है । सुनते हैं, वहीं व्यास जी ने श्राप दिया था कि उसकी सद्गति नहीं होती है । इसी प्रकार मायारूप मगहर भूमि से जो बचते हैं, अर्थात् अलग रहते हैं, वे मनुष्यों में देवरूप कहे जाते हैं और राम का भजन करके रामरूप हो जाते हैं ॥४९॥ 
.
*कालर खेत न नीपजै, जो बाहे सौ बार ।*
*दादू हाना बीज का, क्या पचि मरै गँवार ॥५०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ऊसर भूमि के खेत में चाहे सौ दफा बीज बोया जावे, तो भी उसमें फसल नहीं होती है । उस भूमि से फसल प्राप्त करने के लिये, हे गँवार ! क्यों पचि पचि के मरा जाता है ? वहाँ बीज ही नष्ट हो जाएगा । दार्ष्टान्त में, पामर मनुष्यों का हृदय ही मानो ऊसर भूमि है, उपदेश ही बीज है । गँवार कहिए, विषयों के प्रेमी अज्ञानियों को उपदेश करना ही मानो, कालर भूमि में बीज डालना है । उस उपदेश रूप बीज की हानि ही होती है । उनको मोक्ष रूपी फसल प्राप्त नहीं होती ॥५०॥ 
.
*दादू इस संसार सौं, निमष न कीजे नेह ।*
*जामण मरण आवटणा, छिन छिन दाझै देह ॥५१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस माया के कार्यरूप संसार से विषय - वासनारूपी भोगों की इच्छा रखकर आसक्ति नहीं करना । नहीं तो, फिर जन्मना, मरना और आवटणा कहिए, अनेक प्रकार के संकल्पों की प्राप्ति रूप दुःख ही प्राप्त होगा और क्षण - क्षण में शरीर जलता रहेगा ॥५१॥ 
रिजक राम के हाथ है दुनिया दे सब दु:ख । 
जेता अहटै जगत सौं तेता जीव को सुख ॥ 
सेवग द्वारे साधु रह, तारत मै भयो भूत । 
दूजे सेती आइ कहि, छोड़ गयो अवधूत ॥ 
दृष्टान्त - एक सेठ ने हवेली खरीदी और अपने गुरु जी से बोला - महाराज ! आप इस हवेली में कुछ दिन निवास करो । संत रहने लगे । हवेली के तारत में एक भूत रहता था । महात्मा जी के रहने से भूत को विक्षेप होने लगा । महात्मा जी से तो कुछ कह नहीं पाया । दूसरे पड़ौसी को भूत बोला कि तुम महात्मा जी को बोल दो कि इस हवेली में से चले जायें क्योंकि मेरी स्वतन्त्रता में महात्मा जी के रहने से अड़चन आती है । उस बनिया ने महात्मा जी को इसलिये रखा हैं कि यहाँ से भूत भाग जाय, परन्तु मैं नहीं जाऊँगा । जब पड़ौसी ने महात्मा जी को भूत का सब आख्यान सुनाया तो महात्मा जी तुरन्त वहाँ से चले गये ।
ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि संसार के प्राणियों से किंचित् भी स्नेह नहीं करना । इनके साथ स्नेह करने से दुःख ही होता है ।
साध रख्यौ नृप बाग में, बतखां चुग गई हार । 
खर चढि कै हेलो दियो, इनसैं मिलि ह्वै ख्वार ॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें