रविवार, 17 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(५२-५४)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू मोह संसार को, विहरै तन मन प्राण ।*
*दादू छूटै ज्ञान कर, को साधु संत सुजाण ॥५२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह संसार का मोह तन, मन और प्राणों को हर लेता है । इस संसार के मोह से नित्य अनित्य के विचार द्वारा कोई बिरले महापुरुष, संत, सुजान, प्रवीण, ज्ञान भक्ति में निपुण ही इससे मुक्त होते हैं ॥५२॥ 
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*मन हस्ती माया हस्तिनी, सघन वन संसार ।*
*तामैं निर्भय हो रह्या, दादू मुग्ध गँवार ॥५३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे हाथी सघन वन में विचरता है और हथिनियों के साथ क्रीड़ा करता है, इसी प्रकार यह माया का कार्य संसार ही सघन वन है और नाना प्रकार की चहल - पहल, यह इस वन की हरियाली है । सकामी, अज्ञानी, संसारीजनों का मन ही हाथी रूप है, वह संसार की चहल - पहल देखकर मस्त रहता है और मायारूपी स्त्री ही मानो हथिनी है । इस तरह यह मनरूप हाथी, काल - कर्म के भय से निर्भय हो रहा है । ऐसे मोह में ‘गंवार’, कहिए विषयों का भोगी अन्धा हो रहा है ॥५३॥ 
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*दादू काम कठिन घट चोर है, घर फोड़ै दिन रात ।*
*सोवत साह न जागई, तत्त्व वस्तु ले जात ॥५४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार - काल में घर का मालिक सजग नहीं रहे तो चोर घर को फोड़कर सम्पूर्ण सम्पत्ति चुरा ले जाता है । दार्ष्टान्त में, जीवरूप साहूकार है, अज्ञान अवस्था में ही काम - वासना रूपी चोर है । स्थूल शरीर रूपी घर को कमजोर बनाकर, धन रूप वीर्य बिन्दु को विषयों में अर्थात् स्त्री आदि पदार्थों में ले जाकर खत्म कर देता है । अगर जीवरूप साहूकार, विवेक विचार रूप जाग्रत अवस्था में रहे, तो चोर जीवरूप साहूकार की कुछ भी क्षति नहीं कर सकते ॥५४॥ 
अरहा सरहा अश्‍व को, अगम ले गयो चोर । 
कहै जगजीवनराम जी, पड़यो शहर में शोर ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा के यहाँ अरहा और सरहा, जल पर चलने वाले दो घोड़े थे । एक चोर ने विचार किया कि ये दोनों घोड़े मैं चुरा कर ले आऊं । तब उसने अपना अफसर का रूप बनाया और घोड़े पर सवार होकर किले में आया । पहरेदारों ने कहा - कौन है ? वह बोला - चोर । पहरेदार सोचने लगा, जो चोर होता है, वह अपने को चोर थोड़ा ही बताता हैं, यह तो कोई अफसर है । पहरेदार - अच्छा साहब ! जाइये । चोर - " जा रहा हूँ ।" जहाँ घोड़े थे, वहाँ पहुंच गया । अपने घोड़े से उतरा और उन दोनों अरहा, सरहा घोड़ों पर जीन की । पहरेदार देख रहे थे । वे विचार करने लगे, "देखो ! राजा जी के खास घोड़ों पर जीन कस रहा है, ये घोड़े राजा जी ने मंगवाये हैं, अपने को चोर कहकर हमसे मखौल करता है ।" वह बोला - "भाई ! मैं सचमुच चोर हूँ, तुम धोखे में मत रहना ।" यह कहकर घोड़े के एड़ मारी और दरियाव के बीच में होकर दोनों घोड़ों को ले गया । राजा के सहित सारे शहर में शोर पड़ गया कि अरहा, सरहा अश्‍वों को चोर ले गया ।
ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि पहरेदारों की अचेत अवस्था में ही कामरूपी चोर, विवेक और वैराग्य रूपी ‘अरहा सरहा’, को ले जाता है ।
(क्रमशः)

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