रविवार, 17 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(५५-५७)


॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*काम कठिन घट चोर है, मूसे भरे भंडार ।* 
*सोवत ही ले जायगा, चेतन पहरे चार ॥५५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शरीरधारियों में यह काम बड़ा भारी छिपा हुआ चोर है । जो क्षणभर अज्ञान - निद्रा में स्त्री - संग होते ही, भरे हुए वीर्य - बिन्दु के भंडार को, मूसे कहिए चुरावे, अर्थात् नष्ट कर देता है । हे साधकों ! आयु की बाल्य अवस्था, किशोर अवस्था, युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था, इन चारों अवस्थाओं में सावधान रहिये अर्थात् विषयों के संग का त्याग करियेअथवा जीवरूप सेठ के मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ये चारों ही मानो चौकीदार हैं । इन पहरेदारों को सदा कामरूप चोर से बचने के लिए सावधान रखिये तब जीव को स्वस्वरूप प्राप्तिरूप मोक्ष सुख प्राप्त होता है ॥५५॥ 
बालपनै लीला तजी, तरूण त्रिये नहिं हेत । 
बुजुर्ग बोझ न सिर धरयो, विकल न वृद्घ सुचेत ॥ 
सात वर्ष लौं बाल है, तीस वर्ष लौं तरून । 
साठ समीप बुजुर्ग पुनि, आगै वृद्घ विवरन ॥ 
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*ज्यों घुण लागै काठ को, लोहा लागै काट ।*
*काम किया घट जाजरा, दादू बारह बाट ॥५६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार काठ में कीड़ा लग जावे, तो उसको भीतर ही भीतर चूरा बना देता है और लोहा के जंग लग जाये, तो लोहे को सहज - सहज नष्ट कर देता है । इसी प्रकार यह कामरूप शत्रु, अविवेकी पुरुषों के शरीर को, इन्द्रियों को जर्जर(खोखला) बना देता है और दसों इन्द्रियों, मन, बुद्धि को बहिर्मुख बनाकर व मोक्ष - मार्ग से भटका कर नष्ट कर देता है ॥५६॥ 
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*करतूति कर्म*
*राहु गिलै ज्यों चंद को, ग्रहण गिलै ज्यों सूर ।*
*कर्म गिलै यों जीव को, नख - सिख लागै पूर ॥५७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहारकाल में जैसे राहु चन्द्रमा को और केतु सूर्य को ग्रसता है, वैसे ही ‘राहु’ कहिए निषिद्ध सकाम कर्मों के मार्ग पर चलने से तो जीव का चन्द्रमा स्वरूप मन मलीन हो जाता है और ‘ग्रहण’ कहिए अज्ञान रूपी हेतु, जीवात्मा के शुभ संस्कार रूपी सूर्य को ग्रसता है । इस प्रकार से यह कर्म - बन्धन जीवात्मा को माया में आसक्त करते हैं । दार्ष्टान्त में जैसे सूर्य चन्द्र के गहने से सर्वत्र अन्धकार छा जाता है, ऐसे ही माया में मोहित हुए जीवात्मा की नख से शिखा पर्यन्त अविद्या में ही प्रवृत्ति होती है ॥५७॥ 
(राहु राक्षस का पिता विप्रचित्त और सिंहिका माता थी, इसलिये इस राक्षस को सैंहिकेय भी कहा जाता है । इसका सिर ‘राहू’ और धड़(कबन्ध) ‘केतु’ नामक ग्रह माने जाते हैं ।)
(क्रमशः)

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