सोमवार, 18 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(५८-६०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू चन्द्र गिलै जब राहु को, ग्रहण गिलै जब सूर ।*
*जीव गिलै जब कर्म को, राम रह्या भरपूर ॥५८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब व्यवहारकाल में चन्द्रमा और सूर्य अपनी गति पर चलते हैं, रुकें नहीं, और राहु केतु की राशियों को उल्लंघन कर जावें, वही राहु और केतु का ग्रसना है । दृष्टान्त में चन्द्रमारूप मन निष्पाप होवे और सूर्य रूपी शुभ संस्कार के बल से अविद्यारूप अज्ञान का नाश होवे तथा आत्मज्ञान का प्रकाश अन्तःकरण में प्रकटे, तब ही मुमुक्षु कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर तत्त्वदर्शी बन जाते हैं और फिर जड़ - चेतन में उनको एक राम का ही दर्शन होने लगता है ॥५८॥ 
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*कर्म कुहाड़ा अंग वन, काटत बारंबार ।*
*अपने हाथों आप को, काटत है संसार ॥५९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन निषिद्ध कर्मरूपी कुल्हाड़ा लेकर अपने शरीर रूपी वन को आप ही काट रहे हैं अर्थात् पुनः पुनः निषिद्ध कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं । इस प्रकार बहिर्मुख मनरूपी हाथ से पापों द्वारा अपने आप को नष्ट करते हैं ॥५९॥ 
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*मित्रता शत्रुता*
*आपै मारै आप कौं, यहु जीव बिचारा ।*
*साहिब राखणहार है, सो हितू हमारा ॥६०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह अज्ञानी जीव सकाम कर्मों द्वारा अपने आपको आप ही, आत्मा से विमुख रूप मरणे को प्राप्त होता है । और परमेश्‍वर हमारा, कहिए जीवों का अत्यन्त हितैषी है, जो चौरासी से निकाल कर इस जीव को मनुष्य - जन्म देता है और जीव को अपनी दया द्वारा, अपना अंश जानकर फिर भी रक्षा करता है ॥६०॥ 
जा घट ज्ञान न गान है, कथा न नाम उचार । 
अपनों अरि सो आपटी, नहीं ‘जगन्नाथ’ उबार ॥
(क्रमशः)

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