सोमवार, 18 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(६१-६३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*आपै मारै आपकौं, आप आपकौं, खाइ ।*
*आपै अपणा काल है, दादू कहै समझाइ ॥६१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह बहिर्मुख प्राणी, आप ही अपने को विषय आसक्ति रूप विष से मारता है और आप ही विवेक - वैराग्य द्वारा अपने अनात्म अहंकार को खा लेता है, अर्थात् नष्ट करता है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि बुरी पापमय वासना से आप ही अपने आपको कालरूप होकर खा लेता है ॥६१॥ 
न किंचित्कस्यचिन्मित्रं न कश्‍चित् कस्यचिद्रिपु: । 
देहीनां गुणदोषा: स्यु: मित्राणि रिपवस्तथा ॥ 
तेरे बैरी को नहीं, तेरे बैरी फैल । 
इन फैलन को त्याग कर गली - गली की सैल ॥ 
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*करतूती कर्म*
*मरबे की सब ऊपजै, जीबे की कुछ नांहि ।*
*जीबे की जाणैं नहीं, मरबे की मन मांहि ॥६२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी जीवों के अन्तःकरण में मलीन वासना उत्पन्न होती है और यह मलीन कर्मों में प्रवृत्त करती है, परन्तु वह अज्ञानी जीव, जीने के लिये निष्काम कर्म आदि कुछ नहीं करते हैं । सदैव जीवित रहने के अर्थात् आत्मनिष्ठ होने के मार्ग को तो भूल ही गये हैं । पुनः - पुनः जन्म - मृत्यु को प्राप्त होने की निषिद्ध वासना ही अन्तःकरण में उत्पन्न होती है ॥६२॥ 
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*बंध्या बहुत विकार सौं, सर्व पाप का मूल ।*
*ढाहै सब आकार को, दादू येह स्थूल ॥६३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मायावी स्त्री का शरीर सम्पूर्ण पाप का मूल कारण है, सर्व विकारों से अर्थात् सम्पूर्ण विषय - वासनाओं से पूर्ण है । यह सम्पूर्ण ‘आकार’, कहिए आकृति वाले शरीरों को नष्ट करने में बलवान् है । सतगुरु महाराज कहते हैं, हे साधकों ! ऐसा स्त्री का यह स्थूल रूप है । इससे विरक्त होने वाले पुरुष ही परमेश्‍वर को प्राप्त होते हैं ॥६३॥ 
नारी बुरी वेश्या और पर की, 
तीजी नरक निसाणी घर की ॥ 
यहाँ पर स्त्री का निषेध शिश्‍न - स्वाद में है अर्थात् इन्द्रियों के भोग भोगने में है, संतान उत्पन्न करने में नहीं है । स्त्री को काम - वासना पूर्ति का एक यंत्र नहीं समझना चाहिए । जो ऐसा समझते हैं, उनके स्थूल शरीर ही जीर्ण होकर नाश को प्राप्त होते हैं ।
(क्रमशः)

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