बुधवार, 20 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(७०/७२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*सांपणि एक सब जीव को, आगे पीछे खाइ ।*
*दादू कहि उपकार कर, कोइ जन ऊबर जाइ ॥७०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया का रूप सापिंणी सम्पूर्ण जीवों को, किसी को आगे और किसी को पीछे भक्षण करती है अर्थात् इस लोक और परलोक में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को भी खा लेती है(गिरा देती है) । कोई बिरले तत्त्ववेत्ता पुरुष ही इस माया रूप सांपिंणी से उबरते हैं अर्थात् बचते हैं । इस माया को सांपणी की उपमा देने का भाव यह है कि जैसे सर्पिणी अपने बच्चे आप खा लेती है, ऐसे ही माया के द्वारा ही जीव जन्मते हैं और माया से ही जीवों की मृत्यु होती है ॥७०॥ 
विषयाशी विषैरेभिर्विषयेन्द्रियपन्नगै: । 
ये न दग्धा न नष्टास्ते द्वित्रा एव जगत्यपि ॥ 
युवती जन ‘जगन्नाथ’ ये, दुमुँही सर्पिणी जान । 
एक हि मुख सूं ग्रासई, दूजे मुख सूं आन ॥ 
सूधा मुख सूं शंखनी, जन ‘जगन्नाथ’ धिजाइ । 
ऊँधा मुख सूं आदसा, निगलै अरु उगलाइ ॥ 
नबारी कूँडा ‘नरक का’, कर्मों की है खाई । 
जैमल सूली सार की, कोई तजियो रे भाई ॥ 
चौ. - बनिता, बीछनि डंक कटाही । 
विषै दर्द कबहूँ नहिं आछी ॥ 
‘जगन्नाथ’ जग जीव विलावै । 
खाइ नहिं खाये का नावै ॥ 
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*दादू खाये सांपणी, क्यों कर जीवैं लोग ।*
*राम मंत्र जन गारुड़ी, जीवैं इहि संजोग ॥७१॥*
टीका - हे गुरुदेव ! इन सब ही जीवों को माया रूपी सांपिणी ही खाती है, तो फिर जीने का अर्थात् बचने का क्या उपाय है ? ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! माया एवं कामिनी रूप सांपिणी के विषय - वासना रूप विष को निवारण करने का राम - नाम मंत्र ही एक सार है और सतगुरु ही उस मंत्र का झाड़ा देने वाले गारुड़ी है । यह संयोग भारी पुण्य से ही प्राप्त होता है । फिर साधक सजीवन भाव को प्राप्त हो जाता है ॥७१॥ 
सम्पद: प्रमदाश्‍चैव तरंगोऽसंगभंगुरा: । 
न तास्वहि - फणाच्छत्रछायासु रमते बुध: ॥(यो.वा.)
सबै संहारे सर्पिणी, सुर नर असुर बजाइ । 
‘जगन्नाथ’ ते ऊबरे, निज अंग पहुँचे जाइ ।
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*दादू माया कारण जग मरै, पीव के कारण कोइ ।*
*देखो ज्यों जग परजलै, निमष न न्यारा होइ ॥७२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया प्राप्ति के लिये प्रायः सम्पूर्ण जगत् के प्राणी मरे जाते हैं, अर्थात् कष्टप्रद साधन माया के लिये साधते हैं, परन्तु पीव, मुख - प्रीति का विषय परमेश्‍वर ! उसकी प्राप्ति के लिए तो निष्काम अर्थात् निर्वासनिक होकर नाम - स्मरण करने वाले कोई बिरले ही होते हैं । हे साधक पुरुषों ! विचार कर देखो तो देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी ये सभी मायावी मोहरूप अग्नि में जल रहे हैं । एक क्षण भी मोहरूप अग्नि से अलग नहीं होते हैं ॥७२॥ 
येन कान्ताश्‍चिरं भुक्त्वा भोगास्तस्येह जन्तुभि: ॥ 
दृष्टो न कस्यचिन्मूर्ध्नि तरुर्व्योमपल्लव: ॥
(क्रमशः)

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