बुधवार, 20 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(७३/७४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*काल कनक अरु कामिनी, परिहर इन का संग ।*
*दादू सब जग जल मुवा, ज्यों दीपक ज्योति पतंग ॥७३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो माया के द्वारा उत्पन्न होते हैं, वे सभी साधारण जीव, माया में ही मोहित रहते हैं । वे माया के कौन से रूप से मोहित हो जाते हैं ? उस पर कहते हैं कि यह कालरूप माया, कनक और कामनी रूप होकर सबको मोहित करती है । जैसे दीपक सब पतंगों को जलाता है, इसी प्रकार प्राणी मात्र को माया जलाती है । इसलिए तत्त्व - वेत्ताओं ने इसका त्याग किया है ॥७३॥ 
शुंभ अशुंभ असुर दो, मरै न काहू भांत । 
ब्रह्म तिल तिल रूप ले, तिलोतमा कियो अंत ॥ 
दृष्टांत - शुंभ और निशंभु, दोनों राक्षसों ने ब्रह्मा जी की भारी तपस्या की । ब्रह्माजी प्रसन्न होकर बोले, "वर मांगो ।" उन्होंने वर मांगा कि हम किसी के मारे न मरें । ब्रह्माजी ने कहा - "तथास्तु ! परन्तु दोनों आपस में नहीं लड़ना, दोनों लड़ोगे तो मर जाओगे ।" वे दोनों राक्षस वर प्राप्त करके मनमानी करने लगे । उनकी मनमानी से देवता, मनुष्य, सभी दुखी रहने लगे । फिर ब्रह्माजी ने संसार की सुन्दरता से सबसे तिल - तिल जितनी सुन्दरता लेकर तिलोत्तमा नाम की स्त्री बनाई और जहाँ वे दोनों रहते थे, वहाँ ही उसको छोड़ दी । उन्होंने देखा, एक महान् सुन्दरी घूम रही है । वे आये और बोले, "तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो ?" वह बोली - मैं स्त्री हूँ, कहीं से नहीं आई, यहीं घूमती हूँ । वे बोले - हमारे पास रहा करो । उसने कहा - अच्छा । वह एक को बोली "तुम मेरे लिए पानी लाओ ।" वह पानी लेने गया । पीछे वाले से बोली, "मैं तेरे से खुश हूँ, उससे नहीं हूँ ।" वह पानी लेकर आया । दूसरे नम्बर को बोली - "तुम मेरे लिए कन्द - मूल ले आओ ।" वह लेने गया । फिर पहले वाले को बोली, "मैं तुझसे खुश हूँ, उससे नहीं हूँ ।" जब दोनों एकत्रित हुए, तो आपस में कहने लगे, एक बोला "तू चला जा", दूसरा बोला "तू चला जा ।’ उसने उसके मारी, दूसरे ने उसके मारी । दोनों आपस में लड़कर खत्म हो गए ।
ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि मायावी तिलोत्तमा ने दोनों का अन्त कर दिया । वैसे ही कनक और कामिनी सम्पूर्ण प्राणी मात्र का अंत कर रहे हैं ।
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*दादू जहाँ कनक अरु कामनी, तहँ जीव पतंगे जांहि ।*
*आग अनंत सूझै नहीं, जल - जल मूये मांहि ॥७४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जहाँ कनक(सोना) और कामिनी(स्त्री) होते हैं, वहीं पर लोभी और कामी, पतंगरूप जीव जाते हैं और उनसे प्रीति करके उनकी प्रेमरूपी शीतल अग्नि में जल कर नष्ट होते रहते है । जैसे दीपक को देखकर पतंगे आकर उसकी ज्योति में जल जाते हैं, वैसी ही अज्ञानी मनुष्यों की हालत होती है ॥७४॥ 
त्रिया पावक नर पतंग, देखत ही मर जाइ । 
कोइक हरिजन ऊबरै, राम सुमिर गुण गाइ ॥ 
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*घट मांही माया घणी, बाहर त्यागी होइ ।*
*फाटी कंथा पहर कर, चिन्ह करै सब कोइ ॥७५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिनके अन्तःकरण में तो माया की पूर्ण वासना भरी हुई है और ऊपर से फकीरी बाना बनाकर अपने को त्यागी कहलाते हैं । फटी हुई कंथा धारण करते हैं अथवा गैरूवां कपड़े, माला, तिलक आदि आडम्बर करते हैं, ऐसे बहुत से नकली भेषधारी होते हैं ॥७५॥ 
मन में माया ले रहे, तन तैं देइ निवार । 
चित कपटी जग ‘जगन’ ते, गयेहु जनम सठ हार ॥ 
त्यागी को लागी घणी, माया मेलन मन । 
यहु भी हुनर देखिये, समझे समझो जन ॥(रज्जब)
(क्रमशः)

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