गुरुवार, 21 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(७६/८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*काया राखे बन्ध दे, मन दह दिशि खेले ।*
दादू कनक अरु कामिनी, माया नहीं मेले ॥७६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! काया को तो बड़ी कसौटी से कसते हैं । भूखे, प्यासे, नंगे, लंगोटा बहुत कस कर बांधते हैं, परन्तु जिनका मन दसों दिशाओं में वासना द्वारा घूमता रहता है, मायावी पदार्थों का मनोरथ रूपी खेल खेलता रहता है, ऊपर से भेष बाना बना रखा है । उनके लिए सतगुरु महाराज कहते हैं कि वे अन्तःकरण से कनक और कामिनी का त्याग नहीं करते हैं और अपने को परमेश्‍वर के भक्त बतलाते हैं । ऐसे पुरुष तो सदा स्त्री व पैसे के दास ही बने रहते हैं ॥७६॥ 
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*दरसन पहरै मूंड मुंडावै, दुनियां देख त्याग दिखलावै ।*
*मन सौं मीठी मुख सौं खारी, माया त्यागी कहैं बजारी ॥७७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कानों में तो मुद्रा पहन लिया, सिर के बाल मुंडवा कर घोट - मोट कर लिया, दुनियां के दोनों दीन हिन्दू, मुसलमानों को झूठा आडम्बर बना कर, मुख से झूठ बोलकर, अपने को त्यागी फकीर, सच्चे साधु कह कर बतलाते हैं । उन्हें माया, माया के भोग, खान - पान, मन से तो मीठे लगते हैं और मुख से खारे बतलाते हैं । ऐसे बाजारू त्यागियों को बाजार के लोग, गाँव के लोग, बिना परीक्षा किये ही त्यागी कहते हैं ॥७७॥ 
ज्यों मेंढा हट दूर लग, पुनः फेट ले आइ ।
ऐसे त्याग दिखाइ के, मूढ सर्वस्व ले जाइ ॥ 
मनहर छन्द -
जैसे नर आवते, चड़स को धकाइ दूरि, 
ऐंच के चरण में, सर्वस्व ले निवारि है ।
जैसे योगी मंत्र तैं, उखाल के कढाय हार, 
बाडि लेत आप मूठ, कैसी भांति जारि है ।
जैसे द्रुम पतझर, लेत है बसंत काल, 
दूने फूल फल लेन, काज निज डारि है ।
ऐसी विधि जग को, दिखाइ त्याग पहली मूढ, 
लेत आप वाडि ऐसे, स्वांग लाज मारि है ॥ 
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*माया मंदिर मीच का, तामैं पैठा धाइ ।*
*अंध भया सूझै नहीं, साध कहैं समझाइ ॥७८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया का मंदिर मनुष्य शरीर मानो काल का ही घर है । इसको प्राप्त करके अज्ञानी प्राणी इसके साथ भारी प्रीति करता है, परन्तु साधु - महात्मा इस मनुष्य शरीर में जो - जो परिवर्तन होता है, उसको अच्छी प्रकार समझकर बताते हैं । परन्तु माया के मोह में अंधे हुये प्राणी अपने कर्तव्य - अकर्तव्य को नहीं जानते हैं ॥७८॥ 
रची कोटड़ी सीत की, शिष्य परीक्षा काज । 
मर मर गये सु मूढ नर, एक न लख्यो इलाज ॥ 
दृष्टान्त - एक संत थे । उनके पास अपना उद्धार कराने की इच्छा से चेले बनने को कई आने लगे । महात्मा बोले - "भई ! हमारी यह एक कुटिया है, इसमें एक रात जो रह जाएगा, वही उपदेश लेने का अधिकारी होगा ।" कुटिया को महात्मा जी ने तपोबल से ठंडी बना रखी थी । जो रात को कपड़े उतार कर उसमें घुसे और महात्मा जी बाहर से कुंडा लगा दें । अन्दर मारे सर्दी के कांपने लगे । ‘त्राहि त्राहि’ करता हुआ बोले - "गुरुजी, दरवाजा खोलो ।" अपने कपड़े उठाकर दौड़ जाय और फिर चेला बनने का नाम नहीं ले । ऐसे कई परीक्षा में फेल हो गए । एक सच्चा जिज्ञासु आया । वह उसी प्रकार रात में कोठरी में रहा । ठंड़ लगने लगी, तब व्यायाम करना शुरू कर दिया । शरीर में जब गर्मी आई, तब इधर - उधर दीवारों से टक राने लगा । एक जगह जो गुरु जी ने युक्ति बनाई थी, वहाँ टक्कर लगते ही दीवार फट गई और उसने उसमें हाथ देकर देखा तो लकड़ियां, फूस और माचिस मिली । निकाल कर कोठरी में धूणी सिलगा दी । सर्दी कुछ देर में समाप्त हो गई । फिर देखा कि खाने को भी कुछ रखा होगा । तब देखने लगातो एक डिब्बा मोदक(लड्डू) का और गंगा जल की शीशी मिली । मोदक निकाल - निकाल कर खाने लगा । खूब छककर खाये, ऊपर से जल पिया । ठाठ से आराम किया । प्रातःकाल गुरुजी ने देखा, तो कोठरी से धुआँ निकल रही है । विचार किया यह जरूर उपदेश लेगा । दरवाजा - खुलवाया । गुरुजी के चरणों में नत मस्तक हुआ । गुरु जी ने अधिकारी जानकर उसको उपदेश प्रदान किया ।
बबुक सेठ अपार धन, जोड़ा छप्पन क्रोड़ । 
कहै जगजीवनरामजी, अन्त मुवा सिर फोड़ ॥ 
दृष्टान्त दूसरा - बबुक नाम का एक सेठ था, किन्तु वह बड़ा कंजूस था । वह धर्म - पुण्य कुछ नहीं करता था । उसके चार पुत्र थे । एक समय सेठ परदेश में कमाने चला गया । पीछे से गोरखनाथजी सेठ का रूप धारण कर आये और खूब धर्म - पुण्य, अन्नक्षेत्र, आदि प्रारंभ करा दिये । एक दिन उन्होंने चारों पुत्रों को कहा कि आज रात को एक प्रेत मेरा रूप बनाकर आयेगा, तुम उसको हवेली में मत घुसने देना और मार पीट कर भगा देना । जब रात्रि को बबुक सेठ परदेश से लौटा तो पुत्रों ने उसे प्रेत समझकर घर में नहीं घुसने दिया और मारपीट कर भगा दिया । वह एकान्त स्थान में बैठकर रोने लगा । तब गोरखनाथजी ने प्रकट होकर माया से दान - पुण्य व धार्मिक - कार्य करते रहने का उपदेश दिया । इस प्रकार उसे ब्रह्म - भजन में लगाकर मुक्ति का मार्ग बताया । फिर वह सपरिवार सुख - चैन से रहकर परोपकार करता हुआ भगवद् भक्ति में अपना जीवन लगाकर मोक्षगति को प्राप्त हुआ ।
ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं, कोई विवेकी पुरुष ही माया की शीतल अग्नि से मुक्त होते हैं ।
(क्रमशः)

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