*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू केते जल मुए, इस जोगी की आग ।*
*दादू दूरै बंचिये, जोगी के संग लाग ॥७९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे कोई योगी, मंत्र द्वारा अग्नि लगा देवे, तो उस अग्नि से या तो स्वयं योगी ही बचता है, या जिस पर योगी की कृपा हो, वह बचता है, बाकी सम्पूर्ण प्राणी भस्म हो जाते हैं । इसी प्रकार परम योगेश्वर परमेश्वर ने माया रूप अग्नि और अविद्या का ऐसा पसारा फैलाया है कि इससे कोई विवेकी भक्त अथवा तत्त्ववेत्ता ज्ञानी ही मुक्त होता है । बाकी तो सभी जन्म - मरण के चक‘ में घूमते हैं ॥७९॥
बीर बिताली राम है, माया अग्नि लगाइ ।
जोगी के संग ऊबरे, भाजे जाइ ठगाइ ॥
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*ज्यों जल मैंणी माछली, तैसा यहु संसार ।*
*माया माते जीव सब, दादू मरत न बार ॥८०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल में मछली एक मांस के टुकड़े के लिए दौड़कर प्राण गँवा देती है, वैसे ही इस संसार के विषयासक्त प्राणी, विषय रूपी विष को पीकर मतवाले हो रहे हैं और सम्पूर्ण विकारों में बंधे हैं । उनके प्राण पिण्ड का वियोग होने में कोई देर नहीं लगती है ॥८०॥
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*दादू माया फोड़े नैन दोइ, राम न सूझै काल ।*
*साधु पुकारैं मेरू चढ़, देखि अग्नि की झाल ॥८१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारी प्राणियों के इस माया ने विवेक - वैराग्य रूपी दोनों नेत्र फोड़ दिये हैं । फिर उनको न तो राम और न राम की भक्ति दिखती है और न काल ही दिखता है, ऐसे माया में मतवाले हो रहे हैं । विवेकी मुक्तजन सत् शास्त्र रूपी पहाड़ पर चढ़कर सदुपदेश सुनाते हैं कि हे माया में आसक्तवान् जीवो ! इस अग्नि में जल जाओगे, जल जाओगे । परन्तु बहिर्मुख जीव, संत उपदेश को नहीं अपनाते हैं और उसी मायारूपी अग्नि में जल जाते हैं ॥८१॥
(क्रमशः)
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