सोमवार, 11 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(२२/२४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू माया सौं मन बिगड़या, ज्यों कांजी करि दुग्ध ।*
*है कोई संसार में, मन करि देवे शुद्ध ॥२२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया के रंग से अर्थात् काम, क्रोध, विषय - वासना से, यह मनरूपी दूध फट गया है, जैसे कि खटाई डालने से दूध फट जाता है । क्या ऐसा कोई महापुरुष है, जो इस अपवित्र मन को पवित्र बनाकर परमेश्‍वर में लगा देवे ?। २२॥ 
कांजी माया के विषै, दूध प्राण रस रास । 
फाट जाइ मन फालतू, तज माया हरिदास ॥ 
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*गंदी सौं गंदा भया, यों गंदा सब कोइ ।*
*दादू लागै खूब सौं, तो खूब सरीखा होइ ॥२३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! गंदी माया से लगकर, प्रीति करके शुद्ध मन भी गन्दा हो जाता है । इस प्रकार सभी संसारी प्राणी गंदे हो रहे हैं । सतगुरुओं के ज्ञान उपदेश द्वारा मन जब खूब सुन्दर पवित्र परमेश्‍वर के नाम - स्मरण में लगता है, तो परमेश्‍वर रूप ही बन जाता है ॥२३॥ 
लाहौर मीयां मीर के, बादशाह गयो पास । 
रामदास जी देख धन, भिष्टा कहिरू उदास ॥ 
दृष्टान्त - लाहौर का बादशाह, मीयां मीर के डेरे पर गया । बहुत सी सम्पत्ति चढाई । फिर बादशाह ने सुना कि गुरु रामदास जी भी बड़े अच्छे संत हैं । तब उनके दर्शन करने गया और धन चढ़ाया । आप बोले - अरे ! उठा, ये भिष्टा कहाँ से ले आया ? बदबू आ रही है । बादशाह बोला - महाराज ! हमें तो नहीं आती है । गुरु रामदासजी बोले - तुम तो भिष्टे में लिपे बैठे हो, इसकी बास में बास मिल रहे हो । बादशाह नत - मस्तक हो गया और बोला - आप जैसे परमेश्‍वर के बन्दों को धन्य है, धन्य है !
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*दादू माया सौं मन रत भया, विषय रस माता ।*
*दादू साचा छाड़ कर, झूठे रंग राता ॥२४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन माया के रंग में राता = रत्त और माता = मतवाला होकर विषयों के रंग में रम रहा है । सत्य - स्वरूप परमात्मा के नाम - स्मरण का इसने त्याग कर दिया है, और माया के झूठे रंग में रत्त हो रहा है ॥२४॥ 
(क्रमशः)

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