सोमवार, 1 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१४५/१४७)


॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया बैठी राम ह्वै, ताको लखै न कोइ ।*
*सब जग मानै सत्य कर, बड़ा अचंभा मोहि ॥१४५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्त देवी - देव आदि का रूप बना कर माया ही राम बनकर बैठी है, किन्तु माया के इस कपट को संतों के अतिरिक्त और कोई नहीं जान पाते हैं । सारा संसार मायावी देवताओं को पूजते हैं, इसी वार्ता का हमको आश्‍चर्य होता है ॥१४५॥ 
माया जननी कहत है, वेद वचन कहिं सोइ । 
पुनि शक्ति स्त्री भई, ताकी का गति होइ ?
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*अंजन किया निरंजना, गुण निर्गुण जानैं ।*
*धरा दिखावैं अधर कर, कैसे मन मानैं ॥१४६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन, अंजन माया को ही निरंजन परमेश्‍वर मान कर पूजा करते हैं, किन्तु धरा कहिए, पृथ्वी को यदि कोई अधर कहिये, आकाश कह कर दिखावे, तो विचारवान् पुरुषों का मन कैसे सत्य माने ?। १४६॥ 
अंजन किया निरंजना, मूरति में हरि जान । 
सूरत जासूं बन रही, सोही नीके मान ॥ 
नोरंग ढाये देवरा, जैन रच्यो परपंच । 
चुम्बक चहुँ दिस गाड कर, मूर्ति अधर धर संच ॥ 
दृष्टान्त - बादशाह नोरंगशाह हिन्दुओं के मन्दिरों को गिराता हुआ जैनियों के मन्दिर में पहुँचा । वहाँ देखा कि उनकी मूर्ति अधर है । जैनी लोग बोले - हुजूर ! हमारी मूर्ति तो अधर देव है, यह हिन्दुओं की मूर्ति की तरह से नहीं है । बादशाह ने बेंत लेकर मूर्ति के चारों तरफ घुमाया, तब कुछ पता नहीं लगा । फिऱ सोचा, हो सकता है इन्होंने दीवारों में चुम्बक लगा रखे हों । एक दीवार तुड़वाई, मूर्ति हिल गई । तत्काल मूर्ति को तुड़वा कर देखा, तो जवाहरात निकल पड़े । सब जवाहरात बादशाह ले गया । दुनिया को भ्रम में डाल रखा था, वह सब प्रकट हो गया । जड़ पदार्थ को भी अधर करके दिखाते हैं, भ्रम में डालते हैं ।
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*निरंजन की बात कहै, आवै अंजन मांहि ।*
*दादू मन मानै नहीं, स्वर्ग रसातल जांहि ॥१४७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन उपदेश तो निरंजन का करते हैं और बाद में स्वर्ग आदि कामनाओं को लेकर मायारूप अंजन में ही प्रवृत होते हैं अर्थात् मायामय काम करते हैं । संतों का मन तो एक निरंजन परमेश्‍वर को छोड़कर अन्य किसी को नहीं मानता है ॥१४७॥ 
(क्रमशः)

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