*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*कामधेनु कै पटंतरे, करै काठ की गाइ ।*
*दादू दूध दूझै नहीं, मूरख देइ बहाइ ॥१४८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कामधेनु के समान लकड़ी की गाय बना लें, उसका नाम कामधेनु रख दें, तो वह दूध नहीं दे सकती है । ऐसे ही बहिर्मुख लोग मायावी देवी - देव आदि को परमात्मा की उपमा देकर पूजते हैं और परमात्मा से अलग ही समझते हैं । वे उनसे मुक्तिरूप अमृत चाहें तो वे दे नहीं सकते । मूर्ख लोग उनको पूज - पूज कर अपने आपको जन्म - मृत्यु के प्रवाह में ही बहा देते हैं ॥१४८॥
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*चिंतामणि कंकर किया, मांगै कुछ न देइ ।*
*दादू कंकर डारदे, चिंतामणि कर लेइ ॥१४९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! चमकीले पत्थर को चिंतामणि की कल्पना करके पूजें, तो वह क्या दे ? अर्थात् कुछ भी नहीं दे सकता । इसी प्रकार देव आदि को निरंजन परमेश्वर की उपमा देकर उनसे कोई कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता है । इसलिए वे सब कंकर रूप हैं । उनको हृदय रूपी हाथ से गिरा कर निरंजन परमेश्वर के नाम - स्मरण रूपी चिंतामणि को धारण करो ॥१४९॥
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*पारस किया पाषाण का, कंचन कदे न होइ ।*
*दादू आत्मराम बिन, भूल पड़या सब कोइ ॥१५०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! काले पत्थर को पारस समझ कर जो उससे सोना बनाना चाहे, तो वह उससे सोना नहीं बना सकता । वैसै ही संसारी - मानव परमात्मा का नाम रूपी पारस छोड़कर कल्पित देवताओं का स्मरण करे, तो उससे जन्म - जन्मान्तरों की परमात्मा की अप्राप्ति रूप दरिद्रता दूर नहीं होती ॥१५०॥
भाव कहै भगवंत का, पूजै आन ऊंदोह ।
‘जगन्नाथ’ पारस बिना, पत्थर न पलटै लोह ॥
ज्ञानी पंडित बहुगुणी, परमोधी अति जान ।
उर अंधियार अज्ञान कहि, परमेश्वर पाषान ॥
‘जगन्नाथ’ या जगत में, ज्ञान न कछु है स्वाद ।
कर ता कर पूजै तजै, चरणामृत परसाद ॥
(क्रमशः)
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