गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(२५/२७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*इन बातन क्यों पावै पीव,*
पर धन ऊपर राखै जीव ।*
*जोर जुल्म कर कुटम्ब सौं खाइ,*
सो काफिर दोजख में जाइ ॥२५॥*
टीका ~ हे काजी मुल्लाओं ! इस प्रकार के कर्त्तव्य से परमेश्‍वर नहीं मिल सकते । जबरन से, जो दूसरों के धन को छीनते हैं और अपने कुटुम्ब का पालन करते हैं, अर्थात् अपने मन इन्द्रियों के विषय - भोगों को भोगते हैं । ऐसे काफिऱ नरक में जाते हैं ॥२५॥ 
उत्तमः स्वार्जितैर्द्रव्यैः पितुर्वित्तेन मध्यमः ।
अधमो मातृ - वित्तेन स्त्री - वित्तेनाधमाधमः ॥ 
*काफिर के लक्षण*
चौपाई ~
एक फकीर अल्लह का प्यारा, गलित रहै दुनियां से न्यारा ॥ 
दर्दवंद पक्का दरवेशा, बूझे बहुरि न रहै अंदेशा ॥ 
एक अतीत दरसन को आया, आदर करि नेड़े बैठाया ॥ 
सख्त वचन मुख से कहा काजी, क्या काफिर को कीजे राजी ॥ 
बहुरि अतीत फकीर सूं बूझै, हजरत तुम्ह को सब कुछ सूझै ॥
बड़ा अंदेसा एक हमारे, काफिर किसको कहैं तुम्हारे ॥ 
समझि सोच कर बोला शेख, सो काफिर बूझै नहीं एक ॥ 
दर्द बिना दरवेश कहावे, सो काफिर दोजख में जावे ॥ 
सो काफिर काफिर का खाई, ब्याज मूल दोनों ले जाई ॥ 
हक्क हलाल हराम न जानै, माल बिराना घर में आनै ॥ 
हुज्जत हिर्स जुल्म दुखदाई, काफिर तिस को कहिए भाई ॥ 
झूठा न्याव करै ले कोड़ी, बहुरि करै झूठे की होड़ी ॥ 
झूठ कपट सीखै ठग बाजी, सोई काफिर सोई काजी ॥ 
सो काफिर जे पूजै गैर, होते द्रव्य न बाटैं खैर ॥ 
सो काफिर जो जूवा खेलै, सो काफिर जो जादू मेलै ॥ 
सो काफिर निडर नहीं डर है, नेक पुरुष की निंदा कर है ॥ 
गुन दोष कछु कथा न पावै, घर बैठे को आन सतावै ॥ 
सो काफिर जो मिथ्या बोले, पर नारी से परदा खोलै ॥ 
बगनी बोझा मदिरा पीवै, भांग तमाखू देखे जीवै ॥ 
पांच पहर धंधा में खोवै, तीन पहर पसू ज्यों सोवै ॥ 
खैर बंदगी दोनों नाहीं, सो काफिर दोजख में जाहीं ॥ 
सो काफिर कृत्तम को पूजै, सिर पर सिरजनहार न सूझै ॥ 
झूठा आगै सांचा मारे, तिसको काफिर कहैं हमारे ॥ 
यह काफिर हजरत कहै, हरिदास हद खोइ । 
इनको मोमिन मुसलमान, कहै सो काफिर होइ ॥ 
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दो साखियों से हिंसा को दोषमय बताकर विरक्तता का उपदेश करेंगे ।
*अदया - हिंसा*
*दादू जाको मारन जाइये, सोई फिर मारै ।*
*जाको तारन जाइये, सोई फिर तारै ॥२६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिसको जो मारने जाता है, फिर उसको वही मारता है । जिसको तारने जाता है, वह उसको तारता है, अर्थात् जो जिसके साथ जैसा व्यवहार बरतेगा, उसके साथ वैसा ही व्यवहार होवेगा ॥२६॥
Whatever beings you kill, 
the same ones will kill you in turn;
Whatever beings you save, the same ones
will save you in return, says Dadu.
भूतानभयं यो दधात् भूतेभ्यः तस्य न भयम् । 
याहक् यो वपते बीजं तादृक् फलं सो लभ्यते ॥
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सांभर स्वामी पै गये, गुरु चेला धरि घात । 
उलटि परी गुरु को हत्यो, रोवत मींडत हाथ ॥ 
दृष्टान्त १ ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज सांभर झील आसन में निवास करते थे । जब ब्रह्मऋषि की ज्ञान भक्ति का राजस्थान में डंका बजा, तब अन्य सम्प्रदाय वाले लोग मुरझा गए । गलता से चार वैरागी साधु रामदास, घटाराम, गैबीदास, छीतरदास, ये कंठी तिलक लेकर सांभर ब्रह्मऋषि के पास पहुँचे । 
एक सांभर का भूधरदास बैरागी भी इनके साथ था । महाराज के सामने कंठी तिलक रखकर नमस्कार किया । फिर बोले ~ यह आप धारण कर लो । महाराज ने पूछा ~ यह कंठी तिलक किसने चलाया है ? साधु बोले ~ “कंठी तिलक चलायो बंदा, सो गुरु कहिए रामानन्दा ।” ब्रह्मऋषि बोले ~
माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहु सेती काम ।
अन्तर मेरे एक है, अहनिस उसका नाम ॥
(१४ - २४)
कवित्त ~
दीनदयाल कहै जन साधन, 
कंठी डिम्ब प्रपंच पसारा । 
स्वांग ही धार कै साध कहावत,
सो हम जानत आदि तुम्हारा ॥ 
रामानन्द हि स्वांग धर्यो जग, 
सो तो भयो कुल मांहि लखारा । 
ज्ञान कहै मम पंथ छिपै नहीं, 
आदि स्वरूप सदा उजियारा ॥ 
यह सुनकर वे पांचों साधु नाराज होकर वहाँ से चल पड़े और फिर एक जाल रचा कि दादू दयाल को खत्म कर दें । 
सायंकाल को भूधरदास और उसका चेला, दोनों आकर महाराज को दण्डवत् करी और महाराज के चरण दबाने लगे । जब योग - निद्रा का समय हुआ । तब बोले ~ महाराज ! प्रातःकाल हम लोग आएँगे और राजबाग की तरफ आपको घूमाने ले चलेंगे । ब्रह्मऋषि बोले ~ “अच्छा ! रामजी आप आ जाना ।” 
जब प्रातःकाल तीन बजे ही गुरु चेला दोनों आये और महाराज से सत्यराम बोले और कहने लगे ~ “महाराज पधारिये ।” ब्रह्मऋषि बोले, “किसी संत को जगा लो ।” भूधरदास ~ “महाराज ! हम आपके चेले ही तो हैं ।” महाराज का करमंडलु भूधरदास ने हाथ में ले लिया और राजबाग की तरफ जंगल में पहुँचे और भूधरदास जोर - जोर से बोलने लगा - “दादूराम ! दादूराम !” सुनते ही चारों बैरागी लट्ठ ले - ले कर आये । राम जी महाराज की लीला कौन जान पाता है ? 
भूधरदास तो दिखने लग गया ब्रह्मऋषि दादू दयाल और दादू दयाल जी दिखने लग गए भूधरदास । उन्होंने दो चार लट्ठ मारे । वह कहने लगा, “मैं तो भूधरदास हूँ, भूधरदास हूँ ।” पर उनको वह दादू दयाल दिख रहा था । मार - पीट कर दौड़ गये । ब्रह्मऋषि अपना करमण्डलु और छड़ी लेकर झील में आ गये । दिन निकलने पर शिष्यों से बोले ~ अमुक जगह भूधरदास पड़ा है, उसे उठा लाओ । 
संत गये मूर्छित भूधरदास को लाकर ब्रह्मऋषि के सामने लेटा दिया । गुरुदेव ने सत्यराम कह कर उसके शरीर पर हाथ फेरा, तत्काल बैठा हो गया और चरणों में मस्तक रखकर अपना अपराध क्षमा कराया । ब्रह्मऋषि बोले ~ राम जी ! “जाको मारन जाइये, सोई फिर मारै. ।” साधुओं का यह कर्त्तव्य नहीं होता है ।
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गाय कसाई ले चल्यो, दीनी चोर छुड़ाइ ।
गल दीयो तब वह गई, काढ्यो गल मुकलाइ ॥ 
दृष्टान्त २ ~ एक कसाई, गाय को काटने के लिए छूरा हाथ में लिए गाय को ले जा रहा था । सामने से चोर आया और उसने देखा, कसाई है, गाय को कत्ल करेगा । चोर ने कसाई से गाय छुड़वा दी और उसका छुरा छीन लिया, गाय की रक्षा करी । उस चोर को किसी केस में गिरफ्तार कर लिया । जज ने उसको फाँसी की सजा सुना दी । 
जब उसको फाँसी पर लटकाया, उसके पांव के नीचे गाय ने प्रकट होकर अपनी पीठ लगा दी । जब फाँसी ढीली हुई तो दुबारा फिर फाँसी को कसने लगे, तब गाय ने अपना सिर उसके पांव के नीचे लगा दिया । वह और भी ऊँचा हो गया । फिर फाँसी नहीं लगी, तब फाँसी से उतार लिया गया । जज ने पूछा, “तुम्हारे क्यों नहीं फाँसी लगी ?” तब चोर ने उपरोक्त वृत्तान्त सब सुना दिया । जज को ज्ञान हो गया कि इसने गाय की रक्षा की थी, उस गऊ ने इसकी रक्षा की है ।
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घोड़े चढ़ि रजपूत इक, मग में मार्यो सांप ।
चींटी लई उबार तब, रक्षा कर लई आप ॥ 
दृष्टान्त ३ ~ एक राजा घोड़े पर सवार होकर जा रहा था । मार्ग में काला सांप मिल गया । उसने देखा, यह काल कहाँ से आ गया ? तब घोड़े से उतर कर उसकी गर्दन पर एक तलवार मार दी, फिर सवार होकर चलने लगा । उस सांप की ठोडी भी फुदकती - फुदकती उसके पीछे जाने लगी । 
आगे रास्ते में चींटियों का एक नाल आया । राजा ने देखा कि चींटी नाल के ऊपर से घोड़ा जाएगा, बहुत सी चींटी मर जाएँगी । वह रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से गया । पीछे से सांप की ठोडी आई । चींटियों से पूछा ~ क्या इधर से घोड़े का सवार गया है ? 
चींटियों ने कहा, हाँ भाई ! गया है, क्या बात है ? “उसने मुझे मारा है, मैं भी उसको डस कर मारूँगा ।” चींटियां बोलीं ~ “हमको तो उसने तारा है, तो हम भी उसको जहाँ तक होगा तारेंगी ।” ठोडी, रात को जाकर राजा की जूती मैं बैठ गई । चींटियों ने भी उस जूती को चारों तरफ से घेर लिया । सवेरे राजा उठा, दूर से देखा तो चींटियां जूती में भरी दिखलाई पड़ी । 
बांस लेकर नौकर को बुलाया । राजा बोला ~ जूतियों में बांस डाल कर ऊंची करके हिलाओ, चीटियां सब निकल जाएँगीं । हिलाते ही जूती में से सांप की ठोडी निकल कर पड़ी । चीटियों ने अपना रास्ता लिया । राजा ने ठोडी देखकर विचार किया कि यह तो सांप है, जिसको मैंने मारा था और ये वही चींटियां हैं, जिनको मैंने बचाया था । 
राजा ने मन में बहुत पश्‍चात्ताप किया और विचार करने लगा, जो जिसको तारता है, वह उसको तारता है और जो किसी को मारता है, वह उसको मारता है । इसलिए मनुष्य जन्म पाकर किसी को भी नहीं सताना चाहिए । सर्व जीवों की रक्षा ही करनी चाहिए । इसी से कल्याण होता है ।
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दादू नफ्स नाम सौं मारिये, गोशमाल दे पंद ।
दूई है सो दूरि कर, तब घर में आनन्द ॥२७॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस विषियाकार बहिर्मुख मन को नाम - स्मरण द्वारा एकाग्र करो और इन्द्रियों को भी गुरु उपदेश द्वारा अन्तर्मुख लाओ । अन्तःकरण से द्वैतभाव को त्याग दो । फिर आत्मा आनन्द का साक्षात्कार करो ॥२७॥
(क्रमशः)

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