बुधवार, 10 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(२२/२४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*सो काफिर जे बोलै काफ, दिल अपना नहीं राखै साफ ।*
*सांई को पहचानै नांहीं, कूड़ कपट सब उन्हीं मांहीं ॥२२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो प्रमादी प्राणी असत्य और निर्दयता - मय बचन बोलें, सो काफिर हैं, वे परमेश्‍वर से विमुखी हैं और उनका मन पवित्र नहीं होता । इसी से उनके मन में झूठ, धोखा देना, ये सब आसुरी गुण संसार में उनमें व्याप्त होते हैं ॥२२॥ 
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*सांई का फरमान न मानैं, कहाँ पीव ऐसै कर जानैं ।*
*मन अपणे में समझत नांहीं, निरखत चलैं आपनी छांहीं ॥२३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह काफिर है, जो परमेश्‍वर की आज्ञा नहीं मानता और ईश्‍वर सत्ता में आशंका करता है कि परमेश्‍वर कहाँ है ? अगर है तो सबको दिखना चाहिए । ऐसे पुरुष अपने मन में स्वस्वरूप का बोध न प्राप्त करके, ‘छाहीं’ कहिए, माया अथवा अपने शरीर की शक्ति व शरीर की छाया को इधर - उधर देखते चलते हैं, और आशा, वासनामय छाया को देखते हुए अपनी आयु बिताते हैं ॥२३॥ 
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*जोर करै मसकीन सतावै, दिल उसके में दर्द न आवै ।*
*सांई सेती नांही नेह, गर्व करै अति अपनी देह ॥२४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वे ईश्‍वर - विमुखी अज्ञानीजन बलपूर्वक गरीबों को सताते हैं और गरीबों को कष्ट देते समय उनको बिल्कुल भी रहम नहीं आता । शरीर अभिमान के सामने वे, निष्काम शुभ कर्म और ईश्‍वर को भी भूल बैठे हैं । ऐसे कुकर्मी ही काफिर होते हैं ॥२४॥ 
(क्रमशः)

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