*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साँच का अंग १३ =*
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*सो मोमिन मोम दिल होइ, सांई को पहचानै सोइ ।*
*जोर न करै हराम न खाइ, सो मोमिन बहिश्त में जाइ ॥३१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वही मोमिन मुसलमान है, जिसका दिल मोम के समान कोमल होता है । दुखी को देखकर दुखी हो जाता है, और सुखी को देखकर सुखी रहता है, ऐसा पुरुष परमेश्वर को जानता है । किसी पर जबरदस्ती नहीं करता, दूसरे के हक को नहीं खाता, ऐसे मुसलमान बहिश्त में जाते हैं ॥३१॥
दया जिन्हों के दिल बसै, दरदवंद दरवेश ।
‘तुलसी’ तिनकूँ होइगा, भिस्त माहिं परवेश ॥
✦मोमिन मुसलमान के लक्षण✦
बहुरि अतीत फकर सूं कह्या, हजरत एक अंदेसा रह्या ।
काफर के सब अंग बखाने, मोमिन के लछन नाहीं जाने ॥
हजरत कहै अतीत सौं, संसै रहै न कोइ ।
मोमिन के लक्षण कहो, भिस्त सरीकत होइ ॥
सो मोमिन मालिक सौं डरै, भंडारे में भेद न करै ।
दुविध्या दुर्मति डारै धोई, असली मोमिन कहिये सोई ॥
दर्दबंद साहिब का प्यारा, हुज्जत हिर्स जुल्म तैं न्यारा ।
नेकी नीति यकीन सबूरी, हरदम हाजिर होइ हजूरी ।
दीन गरीबी बांटै खानां, नूर पियाले भिस्त ठिकाना ।
चोरी जारी जूवा त्यागै, पर नारी सूं अलगा भागै ।
हक्क बिराना माल न चाखै, सूर सर्प भिष्टा करि नाखै ।
महर मुहब्बत सब सुखदाई, मोमिन तिसको कहिये भाई ।
इश्क मुहब्बत दर्द उदासी, करै बंदगी खिदमत खासी ।
ज्यूं अपना सुत त्यूं पर बाला, हरष सोक तैं रहै निराला ।
अपना आप भस्म कर डाला, सोई औलिया उलटा चाला ।
सो मोमिन मुर्दा ज्यूं मर है, हराम माल का रोजा कर है ।
सो मोमिन जो मन को मारै, करै बन्दगी राह संवारै ।
औगुन दोष जीव के जानै, बाहर जाता भीतर आनै ।
मतलब एक धनी सूँ राखै, दूजे आगै आन न भाखै ।
आप देय औरों से दिलावै, सो मोमिन साहिब को भावै ।
यह मोमिन हजरत कहै, हरिदास कर प्यार ।
यही तालब अल्लाह के, ये ही अल्लह के यार ॥
✦जैसा करना वैसा भरना✦
सतगुरु भगवान सांभर झील में तपस्या करते थे । एक रोज हिन्दू और मुसलमानों ने यह विचार करके महाराज से प्रश्न किया कि आप न तो तीर्थ, व्रत, मन्दिर आदि को मानते हो और न कलमा पढ़ते हो, न नमाज गुजारते हो । आप किसी भी धर्म को नहीं मानते और धर्म का उपदेश करते हो, इसी के प्रति उत्तर में सतगुरु भगवान् ने ३२ से ३६ तक पांच साखियों से उपदेश किया है ।
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*जो हम नहीं गुजारते, तुम्ह को क्या भाई ।*
*सीर नहीं कुछ बंदगी, कहु क्यों फरमाई ॥३२॥*
टीका ~ हे सज्जनों ! जो हम परमेश्वर की प्रार्थना, भक्ति, तीर्थ, व्रत, नमाज, सिज्दा नहीं करते हैं, तो आपको इसमें क्या हानि होती है ? हे भाइयों ! परमेश्वर की भक्ति में अर्थात् शुभ कर्मों में कोई साझेदारी नहीं होती है । आप यह बात क्यों कहते हो ?।३२॥
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फल ।
स्वयं ब्रह्म सदा ज्ञानी स्वयं मोक्षं च गच्छति ॥
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*अपने अमलों छूटिये, काहू के नाहीं ।*
*सोई पीड़ पुकार सी, जा दूखै माहीं ॥३३॥*
टीका ~ हे सज्जनों ! अपने काम्य कर्मों से ही जीव बन्धन को प्राप्त होता है और अपने निष्काम कर्मों से मोक्ष को पाता है । दूसरे के करने से वह मुक्त नहीं होता । जिसके हृदय में परमेश्वर का विरह है, वही उसे पुकारेगा ॥३३॥
(क्रमशः)
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