शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(३४/३६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
.
*कोई खाइ अघाइ करि, भूखे क्यों भरिये ।*
*खूटी पूगी आन की, आपण क्यों मरिये ॥३४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अगर एक भर - पेट खाता है तो दूसरे का पेट नहीं भरता । इसी तरह दूसरे की “खूटी पूगी कहिये” - आयु समाप्त हो गई है तो, अपने क्यों मरेंगे ? इस रीति से जो आत्मा का विचार करते हैं, उनको ही मोक्ष प्राप्त होती है, और जो अविद्या आवरण में आसक्त हैं, वे संसार - बन्धन में बंधे हैं, दूसरे नहीं ॥३४॥ 
.
*फूटी नाव समंद में, सब डूबन लागे ।*
*अपना अपना जीव ले, सब कोई भागे ॥३५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे समुद्र में नाव टूट जावे, तो फिर कोई किसी के भरोसे नहीं रहता है । सब लोग अपना - अपना पुरुषार्थ करके पार उतरना चाहते हैं । दार्ष्टान्त में, संसारी जनों की वृत्ति में, बहिर्मुख भाव का होना ही नाव का टूटना है, इसलिए सब जीवों को आत्म - विचार के द्वारा संसार - बन्धन से मुक्त होने का पुरुषार्थ करना चाहिये ॥३५॥ 
.
*दादू शिर शिर लागी आपने, कहु कौण बुझावै ।*
*अपना अपना साच दे, सांई को भावै ॥३६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अपने सिर पर लगी आग को आप ही बुझावे, तब बुझे । ऐसे ही संसार - वासना रूप अग्नि से जल रहा है । अब यहाँ स्वयं जिज्ञासु ही परमात्मा के स्वरूप का विचार करके मुक्त हो सकता है ॥३६॥ 
पीपा पाप न कीजिये, अलगो रहिये आप ।
करणी जासी आपणी, क्या बेटा क्या बाप ॥ 
तीन पुरुष गुह में रुके, मात पिता पय पाइ । 
मेहनत दई बढाइ करि, इक त्रिय काल कटाइ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा बनिया, तीनों विदेश कमाने गये थे । पहाड़ी रास्ता था । तूफान आ गया । ये लोग एक गुफा में खड़े हो गये । एक पहाड़ की चट्टान टूटी और गुफा के दरवाजे पर आ लगी । जब ये गुफा के अन्दर गये, वहाँ एक संत के दर्शन किये । उपरोक्त वृत्तांत सब सन्त को कह सुनाया । संत बोले ~ ब्राह्मण तूने कभी सच्चा धर्म किया है तो वह सुना दे, जिससे कि यह शिला धीर - धीरे अलग होगी । 
ब्राह्मण बोला ~ मेरे माता - पिता बूढ़े थे, मैं अपने हाथों से उनकी सब सेवा करता था । दो कटोरी में दूध लेकर मैं आया माता - पिता को पिलाने के लिए । माता - पिता को निद्रा आ गई थी । मैं दूध लिए ही खड़ा रहा । उस रोज उन्हें ऐसी नींद आई कि प्रातःकाल उनकी आँख खुली, सामने मैं दूध लिये खड़ा था । वे बोले ~ पुत्र ! क्या तुम दूध लिए रात से ही खड़े हो ? मैंने कहा ~ “हाँ ।” माता - पिता ने वे दूध के कटोरे ले लिये और मेरा प्रेम जानकर उसी समय उन्होंने पी लिया । मुझे आशीर्वाद दिया कि तेरी जय होगी । यह मैंने सच्चा धर्म माता - पिता के साथ निभाया है, तो यह शिला अलग होवे । 
इतना कहते ही कुछ प्रकाश गुफा में हो गया । संत राजपूत से बोले - “तुमने भी सच्चा धर्म किया हो तो सुना दो ।” राजपूत ~ “एक समय काल पड़ गया । दुनियां बेघर हो गई । एक राजपूत की लड़की माता - पिता से वियोग होने पर घूमती हुई मेरे घर आ गई । मैंने उसको आश्‍वासन दिया और धर्म की पुत्री बना कर रखा । साल भर बाद उसको मैंने उसके गाँव ले जाकर माता - पिता से मिलाया । 
मैंने यह उसके साथ सच्चा धर्म निभाया है तो यह शिला अलग हो जाये” शिला काफी अलग हो गई । संत बनिया से बोले ~ तूने भी कोई सच्चा धर्म किया हो तो सुना दे । बनिया ~ एक समय काल पड़ गया । एक जाट मेरे घर आ गया और नौकरी करने लगा । साल भर के बाद जब वर्षा हुई, जाट बोला ~ सेठ जी, मैं अपने गाँव जाऊँगा, मेरा हिसाब कर दो । मैंने उसका हिसाब करके रुपये दे दिये । वह चला गया । फिर एक रोज मैंने उसके नाम का बही में खाता देखा, तो मेरे में उसकी एक चवन्नी रह गई । मैंने उस चवन्नी को ब्याज में डाल दिया । 
कई साल में जाट आया । चवन्नी का हिसाब किया तो, कई रुपये बन गए । उन रुपयों पर वह चवन्नी रखकर मैंने जाट के सामने रख दिये और कहा कि यह तेरे हैं, ले जा । जाट बोला ~ मैं दान के नहीं लूँगा । बनिया ~ यह तेरी मेहनत के हैं । उपरोक्त चवन्नी का सब वृत्तान्त कह सुनाया । जाट ने अपनी मेहनत के जानकर ले लिये । यदि यह धर्म मैंने जाट के साथ सच्चा निभाया है तो, शिला अलग हो जावे । इतना कहते ही शिला दूर जाकर गिरी । संत बोले ~ देखी सच्चे धर्म की शक्ति ! तीनों संत के चरणों में नत मस्तक हो गये और अपने मार्ग पर चले गए । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें