रविवार, 14 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(४३/४५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*दिल दरिया में गुसल हमारा, ऊजू कर चित लाऊँ ।*
*साहिब आगे करूं बंदगी, बेर बेर बलि जाऊँ ॥४३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस शरीर में स्थित हृदय ही दरियाव है और परमेश्‍वर का नाम ही मानो उसमें जल है और नाम का स्मरण करना ही स्नान है । ब्रह्म स्वरूप का चिंतन करना ही ऊजू है । इस प्रकार इन पांचों ज्ञान इन्द्रियों की पवित्रता करके मालिक में अपने चित्त को स्थिर करो । इस प्रकार परमेश्‍वर की सेवा(बन्दगी) करके ब्रह्मवेत्ता जिज्ञासु अपने आपको मालिक के अर्पण करते हैं । हम उनकी बारम्बार बलिहारी जाते हैं ॥४३॥ 
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*दादू पंचों संग संभालूं सांई, तन मन तब सुख पाऊँ ।*
*प्रेम पियाला पिवजी देवै, कलमा ये लै लाऊँ ॥४४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मुसलमान अपनी पंच ज्ञानेन्द्रियों को अन्तर्मुख करके ईश्‍वर के स्मरण में स्थिर रहते हैं, उनको ही परमानन्द प्राप्त होता है । ऐसे मुक्तजन स्वस्वरूप - चिन्तन रूप अमृत का प्याला पीकर अखंड ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहें, यही कलमा पढ़ना है ॥४४॥ 
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*शोभा कारण सब करै, रोजा बांग नमाज ।*
*मुवा न एकौ आह सौं, जे तुझ साहिब सेती काज ॥४५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसार में सभी रोजा, बांग, नमाज पढना, ये सब व्यावहारिक प्रशंसा के लिए दिखावटी करते हैं । अगर मालिक से ही काम है तो एक ही आह, कहिये विरह की आवाज रूप बांग में क्यों नहीं मरे, अर्थात् मन इन्द्रियां संसारिक भोग - वासनाओं से विरक्त क्यों नहीं हुईं ? हे मुसलमानों ! प्रभु के विरह में संसार का भाव नहीं रहता है ॥४५॥
(क्रमशः)

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